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________________ कहे छे के धर्मज्ञ-धर्मना सत्य मर्मने जाणनार एवा पूर्व महापुरुषोए शास्त्रोमां पांच प्रकारना शुभ परिणामो जणान्या छे. यद्यपि शुभ परिणामो असंख्य प्रकारना कह्या छे, तो पण अहीं जे पांच परिणामो दर्शाव्या छे तेमां ते सर्व परिणामोनो समावेश थइ जवाथी पांचथी अधिक परिणामो विशेषरीत्या गण्या नथी. एवं पुष्टि-शुद्धि' नो अनुबंध पण श्रा पांच श्राशय सिवाय अन्य प्राशयोथी यतो नथी एवो धर्मज्ञ पुरुषोनो अनुभव होवाथी मूलमां मूलकर्ताए ‘प्रायः' पद प्राप्यु. बहोळताये प्रणिधि, प्रवृत्ति, विघ्नजय, सिद्धि, विनियोग-आ पांच प्राशयो ज अत्र अनुबंधविधिमां मुख्य कारणो जाणवा. परमार्थ ए के-जेने आ पांच प्राशयोनो लाभ याय तेने ज पुष्टि-शुद्धिनो अनुबंध प्रवर्ते, एटले पुष्टि-शुद्धिनो अनुबंध प्राप्त करवा आ पांच आशयोनुं ज्ञान करी तेने मेळववा प्रयत्न करवो विवेकीनुं कर्तव्य गणाय. अहीं जे पांच प्राशयोना नामो दर्शाव्या तेमां तथाप्रकारना गुणो अने स्वरूप होवाथी तेमज अन्याशयोमां तथाप्रकारनी विशिष्टता न होवाथी पण अत्रे ए ज पांच प्राशयो दर्शाव्या पाटलो विशेष खुलासो जाणवो. " गत आर्यामां नाममात्रथी दर्शावेल पांचे प्राशयोनुं क्रमशः स्वरूप दर्शावता ग्रंथकर्ता प्रथम 'प्रणिधान' नामे आशयनुं स्वरूप एक भार्याथी बहु सुंदर अने स्पष्ट रीते दर्शावे छे." ११
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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