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अने धर्म , ए विशेषण पदार्थपणे स्थिर थाय छे. एटले अहीं जे जे विशेषणो श्राप्या छे ते सर्वने 'चित्त' नी साथे घटाववा अर्थात् या विशेषणो चित्तने सम्यक्तया लागु थइ शके छे. यदि या प्रमाणे समास न स्वीकारता “ चित्तात्प्रभवतीति चित्तप्रभवः “ चित्तथी - मनथी जे पेदा थाय ते चित्तप्रभव " धर्म जावो. ए रीते कर्मधारय समास स्वीकारीए तो 'धर्म' विशेष्य अने चित्त विशेषण थाय. आम थवाथी श्लोकोक्त सर्व विशेषणो धर्म' ने ज लागु करवा जोइए. फरी यत् शब्दथी पण 'धर्म' पदनुं ग्रहण कर घटे. या स्थितिमां श्लोकनो भाव दुर्गम्य भइ जाय छे एटले एक्के विशेषण 'धर्म' पदनी साथे बंधनेसतुं नथी-वधुमां क्लिष्टता प्राप्त थाय छे. आ दोषो उपजता होवाथी प्रारंभोक्त समास स्वीकारी व्याख्या समजाववी अनुकूल थइ शके छे.
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लक्षणमां वधारो "
उपर कथित लक्षणवाळो धर्म स्वीकारवाथी चोरी, झूठ, व्यभिचार, हिंसा आदि क्रियाने पण धर्मतया व्यवहार करवो जोइए, कारण के ते ते व्यवहारो पण मनथी ज पेदा थाय छे; मन विना एक पण विशिष्ट शुभाशुभ कार्य थतुं नथी. अतः ए आपत्तिने दूर करवा ग्रंथकर्त्ता उपरोक्त लक्षणमा वधारो करवानुं जगावे छे. " मलविगमेनैतत्खलु पुष्ट्यादिमदेष विज्ञेयः " अत्र 'खलु' शब्द निश्रयार्थवाचक जाणवो.
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