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सर्व शास्त्रोने मान्य अने सर्वथा कल्याणफलप्रदाता एवा या धर्मना स्वलक्षणनी परीक्षा विद्वानोए प्रथम तपासवी.
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घाटलो उद्देश कर्या पछी धर्मनुं स्वलक्षण कयुं छे १ ए. प्रश्नना उत्तरमां आचार्यश्री हवे बीजी आर्यामां धर्मनुं स्वलक्षण प्रकाशे छे.
धर्मश्चित्तप्रभवो यतः क्रियाधिकरणाश्रयं कार्यं ॥
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मलविगमेनैतत्खलु
पुष्ट्यादिमदेष विज्ञेयः ॥ ३२ ॥
मूलार्थ: - चित्त - मनथी जे उत्पन्न थाय ते धर्म कारण के विधि, प्रतिषेधरूप क्रिया मनथी ज प्रवर्ते छे अने या क्रिया ते तो कार्यरूप छे, तथा क्रियारूपी कार्यनुं अधिकरण-स्थान शरीर ज छे. एवं क्रियाप्रेरक मन शरीराश्रयी छे, एटले पुष्टि अने शुद्धि करी अलंकृत एवं जे मन तेनी जे प्रवृत्ति ते ज निश्चयेन धर्म जावो.
धर्मलक्षण" ( यशोभद्रसूरिजी )
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स्पष्टीकरणः - श्रार्यानी व्याख्या 'यशोभद्रसूरिजी ' थी उपाध्यायजी सर्वथा भिन्न रीते करे छे. एटले उपाध्यायजी यशोभद्रसूरिजीनी टीकाने हस्तस्पर्श सरखो पण करता नथी एटलुं ज नहीं किन्तु जे