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________________ कष तथा छेदशुद्ध जाणवा; ज्यारे अन्य शास्त्रोमां तेवी प्रगाढ क्रियायो दर्शावी नथी. " तापशुद्धि" कष तथा छेदे करीने बन्ने रीते सुवर्ण सिद्ध थयु होय तो पण विशेष शंकाने दूर करवा तेना मिश्रभागनी परीक्षा करवा फरी बुद्धिमान सराफो तेने ताप आपी-अग्निमां तपावी अच्छी रीते निहाळे छे. एटले जो सुवर्ण अग्निमां नाख्या पछी ते पोतानो असल रंग तथा स्व-स्वरूपनो त्याग न करे तो ते खरं कंचन कहेवाय, अन्यथा ते सुवर्णपणाना मूल्यने लायक न गणाय; कारण के साधु सोनुं सर्वदा एक ज रूपमा रहे छे. तथाप्रकारे शास्त्र पण कष, छेद उभय रीते शुद्ध नीकल्या पछी तेनां आंतरतत्त्वनी यथार्थ परीक्षा करवा तेनी तापद्वाराए शुद्धि निहाळवी ए उचित्त ज गणाय. तापy स्वरूप आ रीते जाणवू " उभयनिबंधनभाववादस्ताप इति" उपर जणावेल कप अने छेद उभयना आधारभूत अने परिणामी कारणरूप जीवादि पदार्थोनी यथास्थित जे व्याख्या तेनुं नाम ताप, कष तथा छेदनी साफल्यता तापनी शुद्धि पर अवलंबी रहे छे, एटले तापनी सफलतामां कषछेदनी सफलता समजवी. एवं शास्त्रमा विधि, निषेधवाक्यो दर्शान्या होय, विविध बाह्य क्रियाओ पण कही होय तदपि आ सवेना आधारभूत प्रात्मा विगेरे तत्वनुं स्वरूप एकदेशीय अथवा सदोष प्रकाश्युं होय तो उपरोक्त बने फलशून्य समजवा.
SR No.022219
Book TitleShodashak Granth Vivaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherKeshavlal Jain
Publication Year
Total Pages430
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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