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________________ (श्रावक धर्म विधि प्रकरण ) लौकिक कथाओं के रूप में संगृहीत किया है। मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धि चमत्कार को प्रकट करने के लिये कई कथानकों का ग्रथन किया है। मनुष्य-जन्म की दुर्लभता को चोल्लक, पाशक, धान्य, द्यूत, रत्न, स्वपन, चक्रयूप आदि दृष्टान्तों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। पंचवस्तुक (पंचवत्थुग) : आचार्य हरिभद्र की यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें १७१४ पद्य हैं जो निम्न पाँच अधिकारों में विभक्त हैं - १. प्रव्रज्याविधि के अन्तर्गत २२८ पद्य हैं। इसमें दीक्षासम्बन्धी विधिविधान दिये गए हैं। २. नित्यक्रिया सम्बन्धी अधिकार में ३८१ पद्य हैं। यह मुनिजीवन के दैनन्दिन प्रत्ययों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है। ३. महाव्रतारोपण विधि के अन्तर्गत ३२१ पद्य हैं। इसमें बड़ी दीक्षा अर्थात् महाव्रतारोपण विधि का विवेचन हुआ है, साथ ही इसमें स्थविरकल्प, जिनकल्प और उनसे सम्बन्धित उपाधि आदि के सम्बन्ध में भी विचार किया गया है। चतुर्थ अधिकार में ४३४ गाथाएँ हैं। इनमें आचार्य-पद स्थापना, गणअनुज्ञा, शिष्यों के अध्ययन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा करते हुए पूजा-स्तवन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों का निर्देश इसमें मिलता है। पञ्चम अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधान दिये गए हैं। इसमें ३५० गाथाएँ हैं। - इस कृति की ५५० श्लोक परिमाण शिष्यहिता नामक स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है। वस्तुत: यह ग्रन्थ विशेष रूप से जैन मुनि-आचार से सम्बन्धित है और इस विधा का यह एक आकर ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। .. श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपण्णत्ति) : ४०५ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध यह रचना श्रावकाचार के सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ऐसा माना जाता है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति संस्कृत भाषा में निबद्ध की थी। यद्यपि अनेक ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है, परन्तु इसकी आज तक कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई है। नाम साम्य के कारण हरिभद्रकृत इस प्राकृत कृति (सावयपण्णत्ति) को तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति की रचना मान लिया जाता है, किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है। पञ्चाशक की अभयदेवसूरि कृत बृत्ति में और लावण्यसूरि कृत द्रव्यसप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया है। इस कृति में सावग (श्रावक) शब्द का अर्थ, सम्यक्त्व का स्वरूप, नवतत्त्व, अष्टकर्म, श्रावक के १२ व्रत और श्रावक सामाचारी का विवेचन उपलब्ध होता है।
SR No.022216
Book TitleShravak Dharm Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorVinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages134
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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