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________________ (श्रावक धर्म विधि प्रकरण ) करते हैं, (द्रव्य) पूजा आदि कार्य आरम्भ करवाते हैं, जिन-मन्दिर बनवाते हैं, हिरण्य-सुवर्ण रखते हैं, नीच कुलों को द्रव्य देकर उनसे शिष्य ग्रहण करते हैं। मृतक-कृत्य निमित्त जिन-पूजा करवाते हैं, मृतक के विमित्त जिन-दान (चढावा) करवाते हैं। धन-प्राप्ति के लिये गृहस्थों के समक्ष अंग-सूत्र आदि का प्रवचन करते हैं। अपने हीनाचारी मृत गुरु के निमित्त नदिकर्म, बलिकर्म आदि करते हैं। पाट-महोत्सव रचाते हैं। व्याख्यान में महिलाओं से अपना गुणगान करवाते हैं। यति केवल स्त्रियों के सम्मुख और आर्यिकाएँ केवल पुरुषों के सम्मुख व्याख्यान करती हैं। इस प्रकार जिन-आज्ञा का अपलाप कर मात्र अपनी वासनाओं का पोषण करते हैं। ये व्याख्यान करके गृहस्थों से धन की याचना करते हैं। ये तो ज्ञान के भी विक्रेता हैं। ऐसे आर्यिकाओं के साथ रहने और भोजन करने वाले द्रव्य संग्राहक, उन्मार्ग के पक्षधर मिथ्यात्वपरायण न तो मुनि कहे जा सकते हैं और न आचार्य ही हैं। ऐसे लोगों का वन्दन करने से न तो कीर्ति होती है और न निर्जरा ही, इसके विपरीत शरीर को मात्र कष्ट और कर्मबन्धन होता है।" वस्तुत: जिस प्रकार गन्दगी में गिरी हुई माला को कोई भी धारण नहीं करता है, वैसे ही ये भी अपूज्य हैं।४० हरिभद्र ऐसे वेशधारियों को फटकारते हुए कहते हैं - यदि महापूजनीय यति (मुनि) वेश धारण करके शुद्ध चरित्र का पालन तुम्हारे लिए शक्य नहीं है तो फिर गृहस्थ वेश क्यों नहीं धारण कर लेते. हो? अरे, गृहस्थवेश में कुछ प्रतिष्ठा तो मिलेगी, किन्तु मुनि-वेश धारण करके यदि उसके अनुरूप आचरण नहीं करोगे तो उल्टे निन्दा के ही पात्र बनोगे। यह उन जैसे साहसी आचार्य का कार्य हो सकता है जो अपने सहवर्गियों को इतने स्पष्ट रूप में कुछ कह सके। जैसे कि मैंने पूर्व पृष्ठों में चर्चा की है, हरिभद्र तो इतने उदार हैं कि वे अपनी विरोधी दर्शन-परम्परा के आचार्यों को भी महामुनि, सुवैद्य जैसे उत्तम विशेषणों से सम्बोधित करते हैं, किन्तु वे उतने ही कठोर होना भी जानते हैं, विशेष रूप से उनके प्रति जो धार्मिकता का आवरण डालकर भी अधार्मिक हैं। ऐसे लोगों के प्रति यह क्रान्तिकारी आचार्य कहता - ऐसे दुश्शील, साधु-पिशाचों को जो भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार करता है, क्या वह महापाप नहीं है? ४२ अरे, इन सुखशील स्वच्छन्दाचारी मोक्ष-मार्ग के वैरी, आज्ञाभ्रष्ट साधुओं को संयति अर्थात् मुनि मत कहो। अरे, देवद्रव्य के भक्षण में तत्पर, उन्मार्ग के पक्षधर और साधुजनों को दूषित करने वाले इन वेशधारियों को संघ मत कहो। अरे, इन अधर्म और अनीति के पोषक, अनाचार
SR No.022216
Book TitleShravak Dharm Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorVinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2001
Total Pages134
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size12 MB
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