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________________ (१) अव्य अने लावधी नक्ति कर्याविना मात्र सांसारिक आरंजनां कार्योने करता एवा श्रावकने सम्यग्दर्शन, विद्यमानपणुं केम होय? तेथी तेनो नाशज बे, एम समजवं. माटे जे शुद्ध आलंबननो पक्षपाती होय एवो श्रावक धर्मनेअर्थ व्योपार्जन करीने पण संकाश नामना श्रावकनी जेम गुणनो जंडार थइ, सर्व लोकमां इष्ट थाय . ते संकाश श्रावक प्रमादशी चैत्यभव्य खाइ गयो हतो, तेनुं वृत्तांत विस्तारथी जोवू होय तो श्राविधि विगेरे ग्रंथ अवलोकन करवा. ५७ __अहिं कोई शंका करे के मलिनारंजी वा सदारंजी तो अव्यपूजानो अधिकारी थइ शके, परंतु जे तेवो न होय ते केम अधिकारी श्रश् शके ? तेनुं समाधान करे . यः श्राछोपि यतिक्रियारतमतिः सावद्यसंक्षेपकृद्, जीरुः स्थावरमर्दनाञ्च यतनायुक्तः प्रकृत्यैव च । तस्यात्रानधिकारितां वयमपि ब्रूमो वरं दूरतः, पंकास्पर्शनमेव तत्कृतमलप्रदालनापेक्षया ॥ ५ ॥ अर्थ.-जे श्रावक सर्व सावध कर्मने संदेप करनार होय, पृथ्वी विगेरे स्थावर जीवने मर्दन करवामां नीरू होय, स्वन्नावश्रीज यतना करनार होय अने जेनी बुद्धि मुनिना जेवी क्रिया करवामां उत्सुक होय, तेवो श्रावक श्रा पूजानो अधिकारी नश्री, एम अमे पण कहीए बीए. कारण के कादवना स्पर्शथी लागेला मलने धोइ नाखवा करतां, ते मलथी दूर रेहेकुं तेज वधारे सारं . ५७
SR No.022204
Book TitlePratima Shatak
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages158
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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