SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७३) यना क्य, क्योपशमथी वैयावच्च गुणना संनवमां काइपण बाधनो अन्नाव बे. ५० जो तेम लइए तो तेमने चारित्रना लेशना संलवमां, अविरतिपणानी जे सिद्धि न पाय तेज बाध आवे ने, तेम कहेतां निराकरण करे . श्राघानां तपसः परं गुणतया सम्यक्त्वमुख्यत्वतः, सम्यक्त्वांगमियं तपखिनि मुनौ प्राधान्यमेषाश्नुते । धीीलांगतयोपसर्जन विधां धत्ते यथा शैशवे, तारुण्ये व्यवसायसंभृततया सा मुख्यतामंचति ५१ अर्थ-दर्शनधारी श्रावकोने तपना गौणपणाने लीधे अने समकितना मुख्यपणाने लीधे आ नक्तिसमकितनुं अंग थाय जे. परंतु ए नक्ति तपस्वी मुनिनेविषे प्रधानपणाने पामे. दृष्टांत के बालवयमां क्रीडा प्रधान होवाथी बुद्धि गौणपणाने पामे, पण तेनी ते बुद्धि यौवन वयमा व्यवसाय पूर्ण होवाश्री मुख्यपणाने पामे. ५१ विशेषार्थ-दर्शनधारी (समकितदृष्टि) श्रावकोने तपनी गौणता , परंतु मुख्यता नथी, तेथी आ नक्ति तेने समकितनुं अंग प्राय ने, अर्थात् प्रधानपणे समकितनुं अंगरूप श्रश् समकितना फलवडेज फलवाली थायजे, कारण के फलवालानी सांनिध्ये तेनुं अंग निष्फल , एवो न्याय ,तेथी तेटलाश्री अविरतिपणाने हानि पहोंचती नश्री. जेम एक दोकडामात्रथी धनवना अने एक गायमात्रधी गायवालो न कहेवाय तेम. तेविषे पंचाशक
SR No.022204
Book TitlePratima Shatak
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages158
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy