SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३५) जिन प्रतिमाना क्षेषी कुमतियोए सद्लक्ति, वैयावृत्य विगेरे गुणां युक्त सम्यग् दृष्टि देवताउने निश्चयथी धर्मरहित मान्या ने, ते स्थानांग सूत्रमा निषिद्ध करेली आ अवर्णवादरूप आशातनावडे चंडालनी जेम सर्व जिनमतथी बाह्यताने प्राप्त थयेला.१६ विशेषार्थ-नथी-आ श्लोकमां व्यंगार्थनी प्रतीति , तेश्री श्री हेमाचार्यजीए कथन करेला लक्षण प्रमाणे पर्यायोक्त अलंकार थायडे, तेमज गम्योत्प्रेक्षा अलंकार पण थायजे. हवे देवताउँमां धर्मस्थापक गुणोदर्शावी बीजानो आदेप करे के शकेवग्रहदातृता व्रतभृतां निष्पापवाग् जाषिता, सबर्माद्यनिलाषिता च गदिता प्रज्ञप्तिसूत्रे स्फुटं । इत्युच्चैरतिदेशपेशलमतिः सम्यग् दृशां स्वःसदां, धर्मित्वप्रतिनूःखलस्खलन कृर्म स्थितिं जानतां॥१७ अर्थ-प्रज्ञप्ति सूत्रमा शक इंजनेविषे, व्रतधारी साधुउने अवग्रह आपवो, निर्दोषवाणी बोलवी अने मुनियोने सदा शाता विगेरे श्ववी, इत्यादि धर्मस्थापक गुणो स्फुटरीते कहेलावे.आ प्रकारे शुद्ध सम्यग्दृष्टिवाला देवताउनी बुद्धि, धर्मनी व्यवस्थाने जाणनारा सह्रदय पुरुषोने धर्मिपणानी सादी रूप. सदृशपणाथी रमणीय चे, अने दुर्जन प्रतिवादीनो परानव करनारी जे. विशेषार्थ-नश्री. देवताउनुं नक्तिकृत्य मुनियोने अनुमोदवा योग्य नथी, अने तेथी ते कृत्य धर्म न कहेवाय एवी गूढ आशयवाली शंकाने असिद्ध करी तेनुं निराकरण करे.
SR No.022204
Book TitlePratima Shatak
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages158
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy