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________________ (१४०) जेठनो आत्मा जिन प्रतिमाने विषे खंडित श्रयेलो ने तेउनी उपर प्रमाणे दशा थाय जे. अमे तो निरंतर अंतरंग प्रीति थी जिनेश्वर लगवाननी प्रतिमानुं निमेष रहितपणे दर्शन करीएनी ए तेथी अमने ते दर्शनश्री आनंदघन अमृतमा निमजन करवा जेवं सुख प्रगट थाय . १०२ मंदारपुमचारुपुष्पनिकरैवृंदारकैरर्चितां, सवृंदाजिनतस्य निर्वृतिलताकंदायमानस्य ते । निस्पंदात् स्नपनामृतस्य जगतीं पांतीममंदामया, वस्कंदात् प्रतिमां जिनेंद्र परमानंदाय वंदामहे॥१०३ अर्थ-हे जिने ! उत्तम पुरुषोना वृंदोए नमस्कार करेली अने मुक्तिरूप लताना कंद समान एवी तमारी प्रतिमा, जे, देवताउए मंदार वृदना पुष्प समूहवडे पूजेली अने उग्र रोगने शोषण करनारा स्नात्र जलरूप अमृतना ऊरणथी सर्व जगतनी रक्षा करे . ते प्रतिमाने अमे परम आनंद (मोद) ने अर्थे वंदना करीए जीए. १०३ विशेषार्थ-नश्री. तपगणमुनिरुद्यत्कीर्तितेजोभृतां श्री, नयविजयगुरूणां पादपद्मोपजीवी । शतकनिदमकार्षीछीतरागैकनक्ति, प्रथितशुचियशः श्रीरुखसम्यक्तयुक्तिः ॥ १० ॥ अर्थ-श्रीवीतराग उपर अपितीय चक्ति वडे जेना यशनी श्री. .
SR No.022204
Book TitlePratima Shatak
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages158
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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