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________________ (११६) विधि" एटले अप्राप्तमा जे प्राप्ति ते विधि कहेवाय. अमे अहिं ए न्यायनो आश्रय करीए बीए. अहिं यतना अने नाव, तेमां यतना जावनी साथे मिश्रित नथी कारणके, अन्यनी साथेज ते मिश्रथवानो संनव बे; त्यारेतो नदी उतरवा विगेरे क्रियावडे ते मिश्रित थाय. तेविषे कहे जे. व्यवहार नयथी साधुने गृहस्थनी जेम नदी उतरवा विगेरे हिंसा न थाय. कारणके गृहस्थ अने साधुने यतना अने अयतना वडेज विशेष व्यवहार रहलो , माटे ते हिंसा मिश्रणनो अनाव ने तेथी मिश्रपणुं श्वेलुं नश्री, तेथी अमारामतमां शुं ते दोषy कीर्तन श्राय. अर्थात् न थाय अहिं मिपश्रदमां वादीनो एवो हृदयाशय ने के तमारा व्यस्तवमा साधुने योग्य एवी यतनानो अन्नाव ने तेथी हिंसावर्जवा योग्य नथी, तेनो उत्तर हवे पीना काव्यमां आपेले ४ ___ उपरना पदने दूषण आपी ग्रंथकार वादीना मतने दूषित करे बे. हिंसा सद्व्यवहारतो विधिकृतः श्राधस्य साधोश्च नो, सा लोकव्यवहारतस्तु विदिता बाधाकरी नोनयोः। श्वाकल्पनयान्युपेत्य विहिते तथ्या तफुत्पादनो, त्पत्तिन्यां तु निदान कापि नियतव्यापारके कर्मणिज्य __ अर्थ-सद्व्यवहारथी विधिकरनार श्रावक अने साधुने हिंसा थती नथी अने बाहेरना लोक व्यवहारनी अपेदाए ते हिंसा गृहस्थ अने साधु बनेने बाधाकारी न थाय अने श्या
SR No.022204
Book TitlePratima Shatak
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
AuthorBhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages158
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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