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________________ ( ७६ ) ले गये । तब वह मनमें विचार करने लगा कि, "माता तथा पुत्रीके साथ कामभोग करना तथा मित्रघातकी चेष्टा इत्यादि महान् पातक मेरे हाथसे हुए हैं, उनका फल इसी भवमें मुझे मिल गया, धिक्कार है ऐसे दुर्दैवको कि जिसका इतना बुरा परिणाम है, सत्य कहने पर भी इतना अयोग्य परिणाम हुआ। तूफानी समुद्रके समान प्रतिकूल दैवको कौन रोक सकता है ? क्या कोई अपनी कल्लोलमाला ( लहरों ) से बडे २ पर्वतोंको तोड देनेवाले सन्मुख आते हुए समुद्रप्रवाहको क सकता है ? इसी तरह पूर्वभवमें किये हुए कौके शुभाशुभ परिणामको भी कोई रोक नहीं सकता." इतने ही में मानो श्रीदत्तके पुण्योंने आकर्षित किया हो इसी भांति इस देशमें विहार करते हुए मुनिचन्द्र नामक केवलीका उसी समय नगरके बाहरके उद्यानमें आगमन हुआ। उद्यान-पालकके द्वारा खबर मिलते ही राजा सपरिवार वहां गया और जैसे बालक प्रातःकाल होते ही माताके पास खानेको मांगता है वैसे ही मुनिराजके पास उपदेशकी याचना की। गुरुमहाराजने कहा कि, “बन्दरको रत्नमालाके समान, जिसके हृदयमें जगत हितकारी धर्म व न्यायका मूल्य नहीं उसको क्या उपदेश दिया जाय ?" ___ यह सुन राजाने घबरा कर पूछा कि, "हे महाराज ! मैं किस प्रकार अन्यायी हूं ?" मुनिचन्द्रकेवलीने उत्तर दिया--
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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