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________________ ( ७१ ) स्वरसे उत्तर दिया कि " हे विज्ञानियों ! तुम विश्वाससे मानो कि मैं कोई देवी देवता नहीं, बल्कि मनुष्य ही की स्त्री हूं । इस सुंदररूप ही ने मुझे दुःख सागर में डाली है । जब देव प्रतिकूल होता है तो गुण भी दोष हो जाता है । यह सुन उन्होंने सुखपूर्वक अपने पास रखनेका वचन देकर सोमश्रीको अपने साथमें ले ली तथा गुप्तरत्नकी भांति उसकी रक्षा करने लगे । तथा उसके रूपगुण पर आसक्त होकर हर एक वणिक उससे विवाह करने की इच्छा करने लगा । कुछ समय के बाद वे फिरते २ इसी सुवर्णकूलबंदरमें आये तथा बहुतसा किराना खरीदा। इतने में एक वस्तु बहुत सस्ती हो गई । प्रायः वणिकलोगोंकी यह रीति ही है कि भाव बढ जानेकी अभिलाषासे सस्ती वस्तु विशेष खरीदते हैं, परन्तु फल भोगने से जिस भांति पूर्वभवका संचित पुण्य क्षीण हो जाता है इसी भांति प्रथम ही बहुतसी वस्तुएं खरीद लेनेसे उनके पास का द्रव्य क्षीण होगया, तब सबने विचार करके सामश्रीको एक वेश्याके यहां बेच दी | मनुष्योंको अपार लोभ होता है और जिसमें वणिकजनोंको तो अधिक ही होता है, इसमें संशय ही क्या ? इस नगरकी विभ्रमवती नामक वेश्याने एक लक्ष द्रव्य देकर आनन्दपूर्वक सोमश्रीको मोल ले ली । सत्य है, वेश्या की जाति ही ऐसी है, उसको तरुण स्त्री मिल जाय तो वह कामधेनु के समान समझती है । विभ्रमवतीने उसका 'सुवर्णरेखा'
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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