SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 791
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७६८) गडी हुई कपिलकेवलिप्रतिष्ठित जिनप्रतिमा, श्रीहेमचन्द्राचार्य गुरुके वचनसे राजा कुमारपालको ज्ञात हुई. उसने उक्त स्थान खुदवाया तो अन्दरसे उक्त प्रतिमा और राजा उदायनका दिया हुआ ताम्रपट्ट भी निकला. यथाविधि पूजा करके कुमारपाल बडे उत्सवके साथ उसे अणहिल्लपुर पट्टणको ले आया तथा नवीन बनवाये हुए स्फटिकमय जिनमंदिरमें उसकी स्थापना करी और राजा उदायनके ताम्रपट्टानुसार ग्राम, पुर आदि स्वीकार रखकर बहुत काल तक उस प्रतिमाकी पूजा की. जिस. से उसकी सर्व प्रकारसे वृद्धि हुई इत्यादि. ऊपर कहे अनुसार देवको भाग देनेसे निरन्तर उत्तम पूजा आदि, तथा जिनमंदिरकी यथोचित सार सम्हाल, रक्षण आदि भी ठीक युक्तिसे होते हैं. कहा है कि-जो पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार जिनमंदिर करावे, वह पुरुष देवलोकमें देवताओंसे प्रशंसित होकर बहुत काल तक परम सुख पाता है. छठवां द्वार रत्नकी, सुवर्णकी, धातुकी, चन्दनादिक काष्ठकी, हस्तीदन्तकी, शिलाकी तथा माटीआदिकी जिनप्रतिमा यथाशक्ति करवाना चाहिये. उसका परिमाण जघन्य अंगूठेके बराबर और उत्कृष्ट पांचसौ धनुष्य तक जानो. कहा है कि जो लोग उत्तम मृत्तिकाका, निर्मलशिलाका, हस्तिदंतका, चांदीका, सुवर्णका, रत्नका, माणिकका अथवा चन्दनका सुन्दर जिनबिंब शक्त्य
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy