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________________ ( ५३ ) मानों कर्मरूप शत्रु पर चढाई करना हो इस भांति शीघ्रतासे मार्ग काटते हुए कुछ दिनके पश्चात् राजा काश्मीर देशके एक वनमें पहुंचा। उस समय क्षुधा, तृषा, पैदल चलना तथा मार्गका परिश्रम इत्यादि कारणोंसे राजा तथा दोनों रानियां व्याकुल होगये थे । तब राजाके सिंह नामक चतुर प्रधानने चिन्तातुर होकर श्रुतसागरसूरिजीसे कहा कि, “गुरुमहाराज ! आप युक्तिसे राजाके. मनका समाधान करिये, अन्यथा धमके स्थानमें उलटी लोकमें हंसी होगी. " यह सुन श्रीश्रुतसागरसूरिजीने राजासे कहा कि, " हे राजन् ! अब तूं लाभालाभका विचार कर । सहसा किया हुआ कोई कार्य प्रामाणिक नहीं समझा जाता। इसी हेतुसे पच्चक्खानके दंडकमें सब जगह सहसाकारादिको छूट रखी है।" राजा जितारि यद्यपि शरीरसे व्याकुल होगया था तथापि मनसे सावधान था । उसने कहा कि, " हे महाराज ! यह उपदेश उस व्यक्ति पर घटित हो सकता है जो की हुई प्रतिज्ञाका पालन करनेमें अशक्त हो, मैं तो सर्वथा मेरे अभिग्रहको पालनेमें समर्थ हूं । प्राण जाय तो चिन्ता नहीं पर मेरा अभिग्रह कदापि भंग नहीं हो सकता." ____ उस समय हंसी तथा सारसीने भी धैर्य तथा उत्साह पूर्वक अपने पतिको उत्तेजन देकर अपना आभिग्रह पालनेके लिये आग्रह करके वीरपत्नीत्व प्रकट किया । सब लोग भी राजाकी
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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