SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 732
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (७०९) हैं । इन तीर्थों में सम्यक्त्वशुद्धिके हेतु गमन करना, वही तीर्थयात्रा कहलाती है । उसकी विधि इस प्रकार है:-एक वखत आहार,सचित्त परिहार, भूमिशयन,ब्रह्मचर्यव्रत पादचार, इत्यादि कठिन अभिग्रह यात्रा की जाय वहां तक पाले जावे, ऐसे प्रथम ही ग्रहण करना । पालखी, घोडे इत्यादि ऋद्धि होवे, तो भी यात्रा करनेको निकले हुए धनाढ्यश्रावकको भी यथाशक्ति पैदल ही चलना उचित है । कहा है कि--यात्रा करनेवाले श्रावकने १ एकाहारी, २ समकितधारी, ३ भूमिशयनकारी, ४ सचित्त परिहारी, ५ पादचारी और ६ ब्रह्मचारी रहना चाहिये । लौकिकशास्त्रमें भी कहा है कि - यात्रा करते वाहनपर बैठे तो यात्राका आधा फल जावे, जूते पहिरे तो फलका चौथा भाग जावे, मुंडन करे तो तीसरा भाग जावे और तीर्थमें जाकर दान ले तो यात्राका सर्व फल जाता रहता है। इसलिये तीर्थयात्रा करनेवाले पुरुषने एक बार भोजन करना, भूमिपर सोना, और स्त्री ऋतुवति होते हुए भी ब्रह्मचारी रहना चाहिये । उपरोक्त कथनानुसार अभिग्रह लेनेके बाद यथाशक्ति राजाको भेटआदिसे प्रसन्न कर उसकी आज्ञा लेना। यात्रामें साथ लेने के लिये शक्त्यनुसार श्रेष्ठ मंदिर तैयार करना, स्वजन तथा साधर्मिभाइयोंको यात्राको आनेके लिये निमंत्रण करना, भक्तिपूर्वक अपने सद्गुरूको भी निमंत्रित करना । अहिंसा प्रवृत्त करना, जिनमंदिरोंमें महापूजादि महोत्सव कराना ।
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy