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________________ (७०६) और ३ तीर्थयात्रा. जिसमें १ अट्ठाईयात्राका स्वरूप पहिले कहा गया है. उसमें सविस्तृत सर्व चैत्यपरिपाटी करनाआदि जो अट्ठाईयात्रा है वह चैत्ययात्रा भी कहलाती है, २ रथयात्रा तो हेमचन्द्रमुरिविरचित परिशिष्टपर्वमें कही है. यथाः--पूज्य श्रीसुहस्ति आचार्य अवंतीनगरी में निवास करते थे, उस समय एक वर्ष संघने चैत्ययात्राका उत्सव किया. भगवान् सुहस्ति आचार्य भी नित्य संघके साथ चैत्ययात्रामें आकर मंडपको सुशोभित करते थे. तब संप्रति राजा अति लघुशिष्यकी भांति हाथ जोडकर उनके सन्मुख बैठता था. चैत्ययात्रा होजानेके अनन्तर संघने रथयात्रा शुरू की. कारण कि, यात्राका उत्सव रथयात्रा करनेसे सम्पूर्ण होता है. सुवर्णकी तथा माणिक्यरत्नोंकी कांतिसे दिशाओंको प्रकाशित करनेवाला सूर्यके रथके समान रथ रथशालामेंसे निकला. विधिक ज्ञाता और धनवान् श्रावकोंने रथमें पधराई हुई जिनप्रतिमाका स्नात्रपूजादि किया. अरिहंत. का स्नात्र किया, तब जन्मकल्याणकके समय जैसे मेरूके शिखर परसे, उसी भांति रथमेंसे स्नात्रजल नीचे पडने लगा. मानो भगवान्से कुछ विनय करते हों ! ऐसे मुखकोश बांधे हुए श्रावकोंने सुगंधित चन्दनादि वस्तुसे भगवानको विलेपन किया. जब मालती, कमल आदिकी पुष्पमालाओंसे भगवान्की प्रतिमा पूजाई, तब वह शरत्कालके मेघोंसे घिरी हुई चन्द्रकलाकी भांति शोभने लगी. जलते हुए मलयगिरिके धूपसे उत्पन्न हुई धूम्र
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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