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________________ (६८७) शक्तिके अनुसार ग्रहण करना चाहिये। जो नियम जहां तक व जिस रीतिसे अपने पाला जा सके, वह नियम वहीं तक व उसी रीतिसे लेना । नियम इस प्रकार ग्रहण करना कि, जिससे क्षणमात्र भी नियम बिना न रह सके । कारण कि, बिरति करनेमै बडाही फलका लाभ है, और अविरतिपने में बहुत ही कर्मबंधनादिक दोष हैं । यह बात पहिले ही कही जा चुकी है । पूर्वमें जो नित्य नियम कहे गये हैं, वे ही नियम वर्षाकालके चातुमासमें विशेष करके लेना चाहिये। जिसमें दिनमें दो बार अथवा तीन बार पूजा (अष्टप्रकारीआदि पूजा), संपूर्ण देववंदन, जिनमंदिर में सर्व जिनबिंबोंकी पूजा अथवा वंदना, स्नात्रमहोत्सव, महापूजा, प्रभावनाआदिका अभिग्रह लेना। तथा गुरुको बडी वंदना करना, प्रत्येक साधुको वंदना करना, चौबीस लोगस्सका काउस्सग्ग,नये ज्ञानका पाठ करना, गुरूकी सेवा,ब्रह्मचर्य, अचित्त पानी पीना, सचित्तवस्तुका त्याग इत्यादि अभिग्रह लेना । तथा बासी, विदल, पूरी, पापड, बडी, सूखा शाक, चवलाई आदि पत्तेकी भाजी, खारिक, खजूर, द्राक्ष, शकर, सोंठ आदि वस्तुका वर्षाकालके चातुर्मासमें त्याग करना । कारण कि, इन वस्तुओंमें नीलफूल, कुंथुए, इली आदि संसक्त जीव उत्पन्न होनेका संभव रहता है। औषधआदिके कार्यमें उपरोक्त कोई वस्तु लेना होवे तो अच्छी प्रकार देखकर बहुत ही यतनासे लेना । उसी प्रकार वर्षाकालके चातुर्मासमें चारपाई, नहाना,
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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