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________________ ( ६७६ ) किया हुआ व्रत प्रलय होवे तो भी विचलित नहीं होता. तदनंतर देवताने प्रसन्न होकर धनेश्वर श्रेष्ठीको कहा – “मैं सन्तुष्ट हुआ हूं. इच्छित वर मांग." तो भी श्रेष्टीने धर्मध्यान नहीं छोडा. तथा अतिशय प्रसन्न होकर देवताने श्रेष्ठी के घर में करोडों स्वर्णमुद्रा तथा रत्नोंकी वृष्टि करी. यह महिमा देखकर बहुत से लोगोंने पर्व पालन करना शुरू किया. उनमें भी राजाका धोबी, तेली और एक कौटुम्बिक (कृषक नौकर) ये तीनों व्यक्ति, जो भी राजाकी प्रसन्नता के हेतु इन्हें विशेष ध्यान रखना पडता था. तो भी छःओं पर्वो में वे अपना अपना धंधा बन्द रखते थे. धर्मेश्वरश्रेष्ठा भी नये साधर्मी जान उनको पारणेके दिन साथमें भोजन करा, पहिरावणी देकर, तथा इच्छित धन देकर उनका बहुत आदर सत्कार किया करता था. कहा है कि, जैसे मेरूपर्वतमें लगा हुआ तृण भी सुवर्ण होजाता है वैसेही सत्पुरुषोंका समागम कुशीलको भी सुशील कर देता है. एक दिन कौमुदीमहोत्सव होने वाला था, जिससे राज्यपुरुषोंने चतुर्दशी के दिन राजा व रानीके वस्त्र उसी दिन धोकर लानेके लिये उक्त श्रावकधोबीको दिये. धोबीने कहा"मुझे तथा मेरे कुटुम्बको बाधा नियम होनेसे हम पर्व के दिन वस्त्र धोना आदि आरम्भ नहीं करते." राजपुरुषोंने कहा कि - "राजाके आगे तेरी बाधा क्या चीज है ? राजाकी आज्ञा भंग होगी तो प्राणदंड दिया जावेगा ।" पश्चात् धोबीके स्वजनोंने तथा अन्य लोगों ने भी
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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