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________________ (६७२) "करेमि भंते ! सामाइअं" कहे. पश्चात् ये चार गाथाएं कहे:-- . "अणुजाणह परमगुरू गुणगणरयणेहिं भूसिअसरीरा ! ॥ बहुपडिपुन्ना पोरिसि, राईसंथारए ठामि ॥१॥ अणुजाणह संथार, बाहुवहाणेण वामपासेण ॥ कुक्कुडिपायपसारण अतरंतु पमजए भूमि ॥२॥ संकोइअ संडासं, उन्वटुंते अ कायपडिलेहा ॥ दव्वाई उपओगं, ऊसासनिरंभणाऽऽलोए ॥३॥ जइ मे हुन्ज पमाओ, इमस्स हस्सिमाइ रयणीए । आहारमुवहि देहं, सव्वं तिविहेण वोसिरिअं ॥४॥" तत्पश्चात् "चत्तारि मंगलं' इत्यादि भावनाका ध्यान करके नवकारका स्मरण करता हुआ चरवलाआदिसे शरीरको संथारे पर प्रमार्जन करके बाई करबटसे भुजा सिरहाने लेकर सोवे. जो शरीर चिंताको जाना पडे तो संथारा दूसरेको लगता हुआ रखकर "आवस्सई" कह कर प्रथम पडिलेहण कर कायचिन्ता करे. पश्चात् इरियावही कर गमनागमनकी आलोचना कर जघन्यसे भी तीन गाथाओंकी सज्झाय कर नवकारका स्मरण करता हुआ पूर्ववत् सो रहे. रात्रिके पिछले प्रहरमें जागृत होवे, तब इरियावही प्रतिक्रमण करके कुसुमिणहुसुमिणका काउस्सग्ग करे. पश्चात् चैत्यवन्दन करके आचार्यआदिको वन्दना कर प्रतिक्रमणका समय होवे तब तक सज्झाय करे. तत्पश्चात् प्रतिक्रमणसे लेकर पूर्ववत् मंडलीमें सज्झाय करने तक क्रिया करे.
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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