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________________ (६५४) सुदर्शनआदि सुश्रावकोंने दुःसाध्य शील पालनेके लिये जो मनकी एकाग्रता करी वह, कषायआदिको जीतनेके लिये जो उपाय किये वे,संसारकी अतिशय विषमस्थिति और धर्मके मनोरथों इन वस्तुओंका चिन्तवन करना. उसमें स्त्रीशरीरकी अपवित्रता, निन्द्यपन आदि सर्व प्रसिद्ध हैं। पूज्य श्रीमुनिचन्द्रसूरिजीने अध्यात्मकल्पद्रुममें कहा है कि- अरे जीव ! चमडी ( त्वचा ), अस्थि ( हड्डी ), मजा, आंतरडियां, चरबी, रक्त मांस, विष्ठा आदि अशुचि और अस्थिर पुद्गलसमूह स्त्रीके शरीरके आकारमें परिणत हुए हैं, उसमें तुझे क्या रमणीय लगता है ? अरे जीव ! विष्ठाआदि अपवित्र वस्तु दूरस्थानमें भी जरासी पड़ी हुई देखे, तो तू थू थू करता है, और नाक सिकोडता है. ऐसा होते हुए रे मूर्ख ! उसी अशुचिवस्तुसे भरे हुए स्वीके शरीरकी तू कैसे अभिलाषा करता है ? मानो विष्ठाकी थेली ही हो ऐसी, शरीरके छिद्रमेंसे निकलते हुए अत्यन्तमलसे मैली (मलीन ), उत्पन्न हुए कृमिजालसे भरी हुई, तथा चपलतासे, कपटसे और असत्यतासे पुरुषको ठगनेवाली स्त्रीको उसकी बाहरी सफाईके मोहमें पड जो भोगता है, उसे उससे नरक प्राप्त होता है. कामविकार तीनों लोकोंको विडम्बना करनेवाला है, तथापि मनमें विषय संकल्प न करे तो वह (कामविकार ) सहजहीमें जीता जा सकता है. कहा है कि
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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