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________________ (६१९) सुश्रावक निरवद्य, निर्जीव से और अशक्त होतो परित्तमिश्र आहारसे निर्वाह करनेवाले होते हैं. श्रावकने साधुकी भांति सरसर अथवा चवचव शब्द न करते, अधिक उतावल व अधिक स्थिरता न रखते, नीचे दाना अथवा बिंदु न गिराते तथा मन, वचन, कायाकी यथोचित गुप्ति रखकर उपयोगसे भोजन करना चाहिये. जिस प्रकार गाडी हांकनेके कार्यमें अभ्यंजन (पइयेमें तैलादि) लेप लगाया जाता है, उसी अनुसार संयमरूप रथ चलानेके लिये साधुओंको आहार कहा गया है. अन्यगृहस्थोंका अपने लिये किया हुआ तीक्ष्ण,कडुवा, तूरा, खट्टा, मीठा अथवा खारा जैसा कुछ अन्न मिले वह साधुओंने मीठे घृतकी भांति भक्षण करना. इसीतरह रोग, मोहका उदय, स्वजनआदिका उपसर्ग होने पर, जीवदयाके रक्षणार्थ, तपस्याके हेतु तथा आयुष्यका अन्त आने पर शरीरको त्याग करनेके लिये आहारको त्याग करना चाहिये, यह विधि साधु आश्रित है. श्रावक आश्रयी विधि भी यथायोग्य जानना चाहिये. अन्यस्थानमें भी कहा है किविवेकी पुरुषने शक्ति होवे तो देव, साधु, नगरका स्वामी, तथा स्वजन संकटमें पडा हो, अथवा सूर्य और चन्द्रका ग्रहण लगा हो, तब भोजन न करना । इसी प्रकार अजीर्णसे रोग उत्पन्न होते हैं, इसलिये अजीर्ण नेत्रविकारआदि रोग हुए हों तो भोजन न करना चाहिये. कहा है कि-ज्वरके प्रारंभमें शक्ति कम न
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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