SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 612
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५८९ ) दूसरे दिन स्वर्गके समान एक नगर सन्मुख दिखाई दिया. वह नगर गगनस्पर्शी स्फटिकमय कोटसे चारों ओरसे घिरा हुआ था, उसकी प्रत्येकपोल में माणिक्य रत्न के दरवाजे थे, रत्नजडित विशाल महलोंके समुदायसे वह नगर रोहणपर्वतकी बराबरी करता था, महलों पर सहस्रों श्वेतध्वजाएं फहरा रही थीं, जिससे वह सहस्रमुखी गंगासा मालूम होता था. भ्रमर जैसे कमलकी सुगंधीसे आकर्षित होता है वैसे नगरकी बिशेष शोभासे आकर्षित हो रत्नसारकुमार उसके समीप आया. चंदन के दरवाजेसे सुगन्धी फैल रही थी तथा जगत्की लक्ष्मीका मानों मुख ही हो ऐसे गोपुरद्वार में कुमार प्रवेश करने लगा इतनेमें द्वारपालिकाकी भांति कोट पर बैठी हुई एक सुंदरमैनाने कुमारको अन्दर प्रवेश करते बहुत ही मना किया. इससे कुमार बडा चकित हुआ. उसने उच्चस्वरसे पूछा - " हे सुन्दरसारिके ! तू मुझे क्यों मना करती है ? ” मैनाने उत्तर दिया :- " हे महान् पंडित ! तेरे हित ही के लिये मना करती हूं. जो तुझे जीवनकी इच्छा हो तो इस नगर में प्रवेश मत कर. तू यह मत समझ कि यह मैना मुझे वृथा मना करती है. मैं जातिकी तो पक्षी हूं, तथापि क्या पक्षीजातिमें उत्तमता होती ही नहीं है ? उत्तम जीव बिना हेतु एक वचन भी नहीं बोलते. अब मैं जो तुझे रोकती हूं उसका कारण जानने की इच्छा होवे तो सुनः --
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy