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________________ (५८५) स्वीकार कर लेने पर, राजा, रत्नसारकुमार, दो राजकन्याएं तथा अन्य परिवार सहित अपनी नगरीकी ओर चला. उस समय विमानमें आरूढ हो साथमें चलनेवाली चक्रेश्वरी, चन्द्रचूड़आदि देवताओंने मानों भूमिमें व्याप्त सेनाकी स्पर्धा हीसे स्वयं आकाशको व्याप्त कर दिया. जैसे सूर्यकिरणोंके न पहुंचनेसे भूमिको ताप नहीं लगता उसी भांति ऊपर विमानोंके चलनेसे इन सर्वजनोंको मानों सिर पर छत्र ही धारण किया हो, वैसे ही बिलकुल ताप न लगा. क्रमशः जब वे लोग नगरीके समीप पहुंचे तब वरवधूओंको देखनेके लिये उत्सुकलोगोंको बडा हर्ष हुआ. राजाने बडे उत्सवके साथ वरवधूओंका नगरमें प्रवेश कराया. उस समय स्थान २ में केशरका छिटकाव किया हुआ होनेसे वह नगरी तरुणस्त्रीके समान शोभायमान, घुटने तक फूल बिछाये हुए होनेसे तीर्थकरकी समवसरण भूमिके समान तथा उछलती हुई ध्वजारूप भुजाओंसे मानो हर्षसे नाचही रही हो ऐसी दीखती थी, ध्वजाकी घूधरियोंके मधुरस्वरसे मानों गीत गा रही थी तथा देदीप्यमान तोरणकी पंक्ति ऐसी थी मानो जगत्की लक्ष्मीका क्रीडास्थल हो. नगरवासी लोग ऊंचे २ मंच पर बैठ कर मधुर गीत गा रहे थे. सौभाग्यवती स्त्रियोंके हंसते हुए मुखसे पद्मसरोवरकी शोभा आ रही थी तथा स्त्रियोंके कमलवत् नेत्रोंसे वह नगरी नीलकमलके वन सदृश दीखती थी.
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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