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________________ (५७५) दास होकर तुझसे प्रार्थना करता हूं कि मेरे साथ पाणिग्रहणं कर और समग्रविद्याधरोंकी स्वामिनी बन " " अनिके सदृश दूसरों पर उपद्रव करनेवाले कामांधलोग ऐसी दृष्ट और अनिष्ट चेष्टा करके पाणिग्रहण करनेकी इच्छा करते हैं, इनको अतिशय धिक्कार है !! " इस प्रकार विचारमग्न अशोक मंजरीने उसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया. जिसकी अनिष्टचेष्टाएं प्रकट दखती हो उसको कौन सत्पुरुष उत्तर देता है ? " मातापिता तथा स्वजनके विरहसे इसको अभी नवीन दुःख हुआ है, तथापि अनुक्रमसे सुखसे यह मेरी इच्छा पूर्ण करेगी. " ऐसी आशा मनमें रखकर विद्याधरराजाने, शास्त्री जैसे अपने शास्त्रका स्मरण करता है, वैसे ही अपना संपूर्ण काम परिपूर्ण करनेवाली सुन्दर विद्याका स्मरण किया. कन्याका स्वरूप गुप्त रखनेके हेतु विद्या के प्रभावसे उसने राजकन्याको नटकी भांति एक तापसकुमारक स्वरूपमें कर दी. सानहीन, बालबुद्धि विद्याधरराजा बड़ी देर तक अशोकमंजरीको मनाता रहा. परन्तु उसे उसके बचन तिरस्कारसे मालूम होते थे, सर्व अन्योपचार आपत्तिमय प्रीतिसे लगते व प्रेमालाप पापवर्ण से लगते थे. विद्याधर राजाके सर्व उपाय, राखमें हवन करने, जलप्रवाह में लघुनीति करने, क्षारयुक्त भूमिमें बोने, सांचनेकी भांति निष्फल हुए तो भी उसने मनाना नहीं छोड़ा. उन्मादरोगी मनुष्यकी भांती कामी पुरुषोंका हठ अवर्णनीय
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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