SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 580
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ५५७ ) हे गोत्रदेवियो ! वनदेवियो ! आकाशदेवियो ! तुम शीघ्र आओ और मेरी इस कन्याको दीर्घायु करो । " रानीकी सखियां, दासियां, और नगरकी सती स्त्रियां वहां आकर रानीके दुःखसे स्वयं दुखी होकर उच्चस्वर से अतिशय विलाप करने लगी । उस समय वहां के सर्व मनुष्य शोकातुर थे । “ अशोक " नाम धारण करनेवाले वृक्ष भी चारों ओर से शोक करते हों ऐसे मालूम होने लगे. उन लोगों के दुःख से अतिशय दुःखी हो वहां न रह सकने के कारण मानो सूर्य भी उसी समय पश्चिमसमुद्रमें डूब गया ( अस्त होगया ।) पूर्वदिशा की ओरसे फैलते हुए अधकारको अशोक मंजरीके विरहसे उत्पन्न हुए शोकने मार्ग दिखा दिया जिससे वह तुरन्त ही सुखपूर्वक वहां सर्वत्र प्रसारित होगया । जिससे शोकातुर लोग और भी अकुलाये । मलनिस्तु के कृत्य ऐसे ही होते हैं। थोडी देरके अनन्तर अमृत के समान रश्मिधारी सुखदायी चन्द्रमा त्रैलोक्यको म लीन करनेवाले अंधकार को दूर करता हुआ प्रकट हुआ । जैसे सजल मेघ लताओं को तृप्त करता है, वैसे ही मानो चन्द्रमाने मनमें मानो दया लाकर ही अपनी चंद्रिका ( चांदनी ) रूप अमृतरसकी वृष्टिसे तिलकमंजरीको प्रसन्न की । पश्चात् रात्रिके अंतिमप्रहर में जैसे मार्गकी जानने वाली मुसाफिर स्त्री उठती है, वैसे ही मनमें कुछ विचार करके तिलकमंजरी उठी, और निष्कपटमनसे सखियों को साथ लेकर
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy