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________________ (५२४) बयालीस तथा दूसरे दोष रहित, सम्पूर्ण अन्न, पान, वस्त्र आदि वस्तु; अनुक्रमसे प्रथम भोजन, पश्चात् अन्य वस्तु इस रीतिसे स्वयं मुनिराजको देना. अथवा आप अपने हाथमें पात्र आदि धारणकर, पासमें खडा रहकर अपनी स्त्रीआदिके पाससे दान दिलाना. आहारके बयालीस दोष पिंडविशुद्धिआदि ग्रंथमें देख लेना चाहिये. दान देनेके अनन्तर मुनिराजको वन्दनाकर उन्हें अपने घरके द्वार तक पहुंचाकर आना. मुनिराजका योग न होवे तो " मेघ बिना वृष्टिके समान जो कहींसे मुनिराज पधारें तो मैं कृतार्थ होजाऊं." ऐसी भावना कर मुनिराजके आनेकी दिशाकी ओर देखना. कहा है कि-- जं साहूण न विनं, कहिपि तं सावया न भुजति । पत्ते भोअणसमए, दारस्सालोअणं कुज्जा ॥ १ ॥ जो वस्तु साधुमुनिराजको नहीं दी जा सकी, वह वस्तु किसी भी प्रकार सुश्रावक नहीं खाते. अतएव भोजनके समय पर द्वारके तरफ दृष्टि रखना चाहिये. मुनिराजका निर्वाह दूसरी प्रकारसे होता हो तो अशुद्धआहार देनेवाले गृहस्थ तथा लेनेवाले मुनिराजको हितकारी नहीं, परन्तु दुर्भिक्षआदि होनेसे जो निर्वाह न होता हो, तो आतुरके दृष्टान्तसे वही आहार दोनोंको हितकारी है. वैसेही "मार्गप्रयाससे थके हुए,रोगी, लोच किये हुए, आगम रूप शुद्धवस्तुके ग्रहण करनेवाले मुनिराजको और तपके उत्तर पारणेमें दान
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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