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________________ (५१०) जिसका कार्य अपने द्वारा न बन सकता हो उसे पहिले ही से स्पष्ट कह देना; मिथ्या वचन कहकर व्यर्थ किसीको भटकाना न चाहिये । चतुर मनुष्योंने किसीको कटु वचन न सुनाना। यदि अपने शत्रुओंको ऐसे वचन कहना पडे तो अन्योक्तिसे अथवा अन्य किसी मिषसे कहना । जो पुरुष माता, पिता, रोगी, आचार्य, पाहुना, भाई, तपस्वी, वृद्ध, बालक, दुबैल, वैद्य, अपनी संतति, भाईबन्धु, सेवक, बहिन, आश्रित लोग, सगे. संबंधी और मित्रके साथ कलह नहीं करता है वह तीनों लोकको वश में करता है । लगातार सूर्यकी ओर नहीं देखना, इसी तरह चन्द्रसूर्यका ग्रहण, बडे कुएका पानी और संध्याके समय आकाश न देखना । स्त्रीपुरुषका संभोग, मृगया, नग्नयुवती, जानवरोंकी क्रीडा तथा कन्याकी योनि न देखना चाहिये । विद्वानपुरुषोंको चाहिये कि अपने मुंहकी परछाई तैलमें, जलमें हथियारमें, मूत्रमें अथवा रक्तमें न देखें; कारण कि इससे आयु घटती है । स्वीकार किये हुए वचनका भंग, गई हुई वस्तुका शोक, तथा किसीकी निद्रा का भंग कदापि न करना । किसीके साथ वैर न करते बहुमतमें अपना मत देना । स्वाद रहित कार्य हो तो भी समुदायके साथ करना चाहिये । समस्त शुभकार्यों में अग्रसर होना । यदि मनुष्य कपटसे भी निस्पृहता बतावे तो भी उससे फल पैदा होता है । किसीको हानि पहुंचानेसे बने ऐसा कार्य कदापि करनेको उत्सुक न होना । सु.
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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