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________________ (४४७) देव और यश नामक दो श्रेष्ठी प्रीतिसे साथ साथ फिरा करते थे. एक दिन किसी नगरके मागेमें पड़ा हुआ एक रत्नजडित कुंडल उनकी दृष्टिमें आया. देवश्रेष्ठी सुश्रावक, दृढव्रत और परधनको अनर्थका मूल समझनेवाला होनेसे पीछे फिरा. यशश्रेष्ठी भी उसके साथ पीछा फिरा. किन्तु 'पडी हुई वस्तु लेनेमें अधिक दोष नहीं.' यह विचार कर उसने वृद्धदेवश्रेष्ठीकी निगाह बचाकर कुंडल उठा लिया और पुनः मनमें विचार किया कि, 'मेरे इस मित्रको धन्य है. कारण कि, इसमें ऐसी अलौकिक निर्लोभता बसती है. तथापि युक्तिसे मैं इसे इस कुंडलमें भागीदार करूंगा.' ऐसा विचार कर कुंडलको छिपा रखा व दुसरे नगर में जाकर उस कुंडलके द्रव्यसे बहुतसा किराना खरीदा. कुछ दिनके बाद दोनों अपने ग्रामको आये. लाये हुए किरानेको बेचनेका समय आया तब बहुतसा किराना देख कर देवश्रेष्ठीने आग्रहपूर्वक इसका कारण पूछा. यशश्रेष्ठीने भी यथार्थ बात कह दी. तब देवश्रेष्ठीने कहा. 'अन्यायसे उपार्जन किया हुआ यह द्रव्य किसी भी प्रकार ग्रहण करनेके योग्य नहीं. कारण कि, जैसे खराबकांजीके अंदर पडनेसे दुधका नाश होजाता है, वैसे ही यह धन लेनेसे अपना न्यायो. पार्जित द्रव्य भी अवश्य विनाश होजायगा.' यह कह उसने संपूर्ण अधिक किराना यशश्रेष्ठीको देदिया. अपने आपही पास आया हुआ धन कौन छोडे ?' इस लोभसे यशश्रेष्ठी वह सब
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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