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________________ (४४०) मनुष्योंके मनोरथ ज्यों २ पूर्ण होते जाते हैं, त्यों २ उनका मन विशेष लाभके लिये दुःखी होता जाता है. जो मनुष्य आशाका दास होगया वह मानो तीनों लोकका दास होगया और जिसने आशाको अपनी दासी बनाइ उसने तीनों जगत्को अपना दास बना लिया है. . ___ गृहस्थमनुष्यने धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंका इस रीतिसे सेवन करना चाहिये कि एक दूसरेको बाधा न हो. कहा है कि- धर्म, अर्थ ( द्रव्य ) और काम ( विषयसुख ) ये तीनोंलोकमें पुरुषार्थ कहे जाते हैं। चतुरपुरुष अवसर देखकर तीनों का सेवन करते हैं. जंगली हाथीकी भांति धर्म व अर्थका त्याग करके जो मनुष्य क्षणिक विषयसुख लुब्ध होता है वह आपत्तिमें पडता है। जो मनुष्य विषयसुखमें अधिक आसक्ति रखता है, उसके धनकी धर्मकी व शरीरकी भी हानि होती है। धर्म और कामको छोडकर उपार्जन किया हुआ धन अन्य लोग भोगते हैं, और उपार्जन करनेवाला हाथीको मारनेवाले सिंहकी भांति केवल पापका भागीदार होता है । अर्थ और कामको त्यागकर केवल धर्म ही की सेवा करना यह तो साधु मुनिराजका धर्म है, गृहस्थका नहीं। गृहस्थने भी धर्मको बाधा उपजाकर अर्थ तथा कामका सेवन न करना चाहिये । कारण कि, बीज भोजी (बोनेके लिये रखे हुए दाने खानेवाला) कुनबीकी भांति अधार्मिक पुरुषका अंतमें कुछ भी कल्याण नहीं होता।
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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