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________________ (४०७ ) एक ऋद्धिवन्त श्रेष्ठी लोकमें बहुत प्रख्यात था. बडप्पन - से तथा बहुमानकी अभिलाषासे जहां तहां न्याय करने जाया करता था. उसको बाल विधवा परन्तु बहुत समझदार एक लडकी थी, वह सदैव श्रेष्ठीको ऐसा करने से मना किया करती थी, परन्तु वह एक न मानता. एकसमय श्रेष्ठी को समझाने के निमित्त उस लडकीने झूठा झगडा प्रारम्भ किया, कि “पहिलेकी धरोहर रखी हुई मेरी दो हजार स्वर्णमुद्राएं दो, तभी मैं भोजन करूंगी " ऐसा कहकर वह श्रेष्ठीपुत्री लंघन करने लगी. किसीकी एक भी न सुनी. "पिताजी वृद्ध होगये तो भी मेरे धनका लोभ करते हैं " इत्यादि ऐसे वैसे वचन बोलने लगी. अन्त में श्रेष्ठीने न्याय करनेवाले पंचोंको बुलवाया. उन्होंने आकर विचार किया कि, " यह श्रेष्ठी की पुत्री है व बालविधवा है अतः इस पर दया रखनी चाहिये. " यह सोच उन्होंने दो हजार सुवर्ण मुद्राएं उसे दिलाई. जिससे धनहानि व अपवाद के कारण श्रेष्ठी बहुत खिन्न हुआ, थोडी देरके अनन्तर पुत्रीने अपना सब अभिप्रायः भली प्रकार समझाकर उक्त स्वर्णमुद्राएं वापस दे दीं. जिससे श्रेष्ठीको हर्ष हुआ व उसने न्याय करनेका परिणाम ध्यानमें आजानेसे जहां तहां न्याय करनेको जाना छोड दिया इत्यादि. इसलिये न्याय करनेवाले पंचोंने जहां तहां जैसा वैसा न्याय न करना चाहिये. साधर्मीका, संघका, भारी उपकारका
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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