SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१९) आपकी गति अद्भुत है । आप ममता न होते हुए भी जगत रक्षक और कोई जगह साथ न होते हुए भी जगत् प्रभु कहलाते हो । ऐसे लोकोत्तर स्वरूपके धारक मनुष्यरूपी आपको मेरा नमस्कार है." पासही आश्रममें बैठे हुए गांगलि ऋषिने राजाकी मधुरशब्दसे की हुई इस स्तुतिको आनन्दपूर्वक श्रवण की । और साक्षात् शंकरके समान जटाधारी तथा बल्कल (वृक्षोंकी छाल.) वस्त्रधारी, निर्मल विद्याके ज्ञाता ऐसे वे कारणवश मंदिरमें आये और भक्तिपूर्वक श्रीऋषभदेव भगवानको वन्दना करके मनोहर, निर्दोष तथा तुरन्त बनाये हुए नवीन गद्यात्मक वचनोंसे इस भांति स्तुति करने लगे- ... — “तीनो लोकके नाथ, त्रिलोकोपकारी यशकीर्ति देने में समर्थ, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन आदि अतिशयोंसे सुशोभित हे आदिनाथ भगवन् ! आपकी जय हो । नाभिराजाके कुलरूपी कमलको विकसित करनेके लिये सूर्यके समान, तीनों लोकोंके जीवोंको स्तुति करने योग्य, श्रीमरुदेवी माताकी कुक्षिरूप सुन्दर सरोवरमें राजहंसके समान हे भगवान् ! आपकी जय हो। त्रिलोकवासी भव्य-प्राणियोंके चित्तरूपी चकोर पक्षीका शोक दूर करने के लिये सूर्यके समान, अन्य सम्पूर्ण देवताओंके गर्वको समूल नष्ट करनेवाले निस्सीम, निर्दोष व अद्वितीय ऐसी महिमा और तेज रूप लक्ष्मी के विलासके लिये कमलाकर
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy