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________________ (३५०) घोडे पर बैठ सैर करनेके मिषसे प्रदेशी राजाको उनके पास ले गया. तब राजाने गर्वसे मुनिराजको कहा- 'हे मुनिराज ! आप व्यर्थ कष्ट न करो. कारण कि धर्म आदि जगतमें है ही नहीं. मेरी माता श्राविका थी और पिता नास्तिक था. मृत्युके समय मैंने उनसे बार २ कहा था कि, 'मृत्यु होजानेके अनंतर तुमको जो सुख अथवा नरकमें दुःख हो, वह मुझे अवश्य सूचित करना.' परन्तु उनमें से किसीने आकर मुझे अपने सुखदुःखका वृत्तान्त नहीं कहा. एक चोरके मैंने तिलके बराबर टुकड़े किये, तो भी मुझे उसमें कहीं भी जीव नजर नहीं आया. वैसे ही जीवित तथा मृत मनुष्यको तौलनेसे उनके भारमें कुछ भी अन्तर ज्ञात न हुआ. और भी मैंने एक मनुष्यको छिद्र रहित एक कोठीमें बंदकर दिया. वह अंदर ही मरगया. उसके शरीरमें पडे हुए असंख्य कीडे मैंने देखे, परन्तु उस मनुष्यका जीव बाहर जाने तथा उन कीडोंके जीवोंको अंदर आनेके लिये मैंने वालके अग्रभागके बराबर भी मार्ग नहीं देखा. इस प्रकार बहुतसी परीक्षाएं करके मैं नास्तिक हुआ हूं.' श्रीकेशिगणधरने कहा- 'तेरी माता स्वर्गसुख में निमग्न होनेके कारण तुझे कहनेको नहीं आई, तथा तेरा पिता भी नरककी अतिघोर वेदनासे आकुल होनेके कारण यहां नहीं आ सका. अरणीकी लकडीमें अग्नि होते हुए, उसके चाहे कितने ही बारीक टुकडे करे जायँ तो भी उसमें अग्नि दृष्टिमें नहीं
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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