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________________ (३४४० है। जिसमें प्रथम फेटावन्दन सर्वश्रमणसंघने परस्पर करना. दूसरा थोभवन्दन गच्छमें रहे हुए श्रेष्टमुनिराजको अथवा कारणसे लिंगमात्रधारी समकितीको भी करना. तीसरा द्वादशावर्त्तवन्दन तो आचार्य, उपाध्याय आदि पदधारक मुनिराजही को करना . जिस पुरुषने प्रतिक्रमण नहीं किया उसने विधिस वन्दना करना. भाष्यमें कहा है कि- प्रथम इरियावही प्रतिक्रमण कर 'कुसुमिण दुसुमिण' टालनेके लिये चार लोगस्सका अथवा सौ उच्छ्वासका काउस्सग्ग करे, कुस्वप्नादिका अनुभव हुआ हो तो एक सौ आठ उच्छ्वासका काउस्सग करे पश्चात् आदेश लेकर चैत्यवंदन करे, पश्चात् आदेश मांगकर मुहपत्ति पडिलेहे, फिर दो वन्दना कर, राइअं आलोवे, पुनः दो वन्दना दे अभितर राइअं खमावे, फिर दो बार वन्दना देकर पच्चखान करे, तदनंतर चार खमासमणां देकर आचायोदिकको थोभवन्दन करे । बादमें सज्झाय संदिसाहु ? और सज्झाय करूं ? इन दो खमासमणसे दो आदेश लेकर सज्झाय करे. यह प्रातःकालकी वंदनविधि है। प्रथम इरियावहीका प्रतिक्रमण कर आदेश ले चैत्यवन्दन करे, फिर क्रमशः मुहपत्ति पडिलेहे, दो वार वन्दना दे, दिवसचरिम पच्चखान करे, दो वन्दना देकर देवसिअ आलोवे. दो वंदना दे देवसिअंखमावे, चार खमासमणा देकर आचार्यादिकको वन्दना करके आदेश ले देवसिप्रायच्छितविसोहणके निमित्त
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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