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________________ ( ३०६ ) 46 करो | तब तुम स्वयं क्यों नहीं करते ? क्या आपके अन्य शिष्य लाभके अर्थी नहीं ? उनके पाससे कराओ " इत्यादि प्रत्युत्तर देना । २५ गुरु धर्मकथा कहें तब अप्रसन्न होना, २६ गुरु सूत्र आदिका पाठ दे, तब " इसका अर्थ आपको बराबर स्मरण नहीं, इसका ऐसा अर्थ नहीं, ऐसा ही है" | ऐसे वचन बोलना, २७ गुरु कोई कथाआदि कहते होवें तो अपनी चतु रता बतानेके हेतु " मैं कहूं " ऐसा बोलकर कथाभंग करना, २८ पर्षदा रसपूर्वक धर्मकथा सुनती हो, तब " गोचरीका समग हुआ " इत्यादि वचन कह कर पर्षदा भंग करना, २९ प दा उठने के पहिले अपनी चतुराई बतानेके हेतु गुरुने कही कथा विशेषविस्तारसे कहना, ३० गुरुकी शय्या, आसन. संथाराआदि वस्तुको पग लगाना, ३१ गुरुकी शय्या आदि पर बैठना, ३२ गुरुसे ऊंचे आसन पर बैठना, ३३ गुरुके समान आसन पर बैठना । आवश्यकचूर्णिआदि ग्रंथ में तो गुरु धर्मकथा कहते हों, तब बीच में " जी हां, यह ऐसा ही हैं " ऐसा शिष्य कहे तो यह एक पृथक् आशातना मानी हैं, और गुरुसे ऊंचे अथवा समान आसन पर बैठना यह दोनों मिलाकर एक ही आशातना मानी है । इस प्रकार गुरुकी तैतीस आशातनाएं हैं । गुरुकी त्रिविध आशातना मानते हैं, वे इस प्रकार :१ गुरुको शिष्य के पग आदि से स्पर्श होवे तो जघन्य आशा
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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