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________________ (२६३) तो वह अक्षय हो जाती है । सर्व भव्यजीव इस पूजारूप बजिसे इस संसाररूप बनमें दुःख न पाते अत्यंत उदार भोग भोग कर सिद्धि ( मोक्ष ) पाते हैं। पूआए मणसंती, मणसंती ए य उत्तमं झाणं । सुहझाणेण य मुक्खो मुक्खे सुक्खं निराबाहं ॥ १ ॥ पुष्पाद्यर्चा तदाज्ञा च, तद्रव्यम् परिरक्षणं । उत्सवास्तीर्थयात्रा च, भक्ति: पंचविधा जिने ॥ २ ॥ पूजासे मनको शांति होती है, मनकी शांतिसे शुभ ध्यान होता है, शुभ ध्यानसे मुक्ति प्राप्त होती है और मुक्ति पानेसे निराबाध सुख होता है। जिनभक्ति पांच प्रकारकी होती है। एक फूलआदि वस्तुसे पूजा करना. दूसरी भगवानकी आज्ञा पालना, तीसरी देवद्रव्यकी भली भांति रक्षा करना, चौथी जिनमंदिरमें उत्सव करना, पांचवी तीर्थयात्रा करना। द्रव्यस्तव आभोगसे और अनाभोगसे दो प्रकारका है। कहा है किभगवान्के गुणका ज्ञाता पुरुष वीतराग पर बहुत भाव रख कर विधिसे पूजाकरे, उसे आभोग द्रव्यस्तव कहते हैं। इस आभोग द्रव्यपूजासे सकल कर्मका निदलन कर सके ऐसे चारित्रका लाभ शीघ्र होता है । अतः सम्यग्दृष्टिजीवोंने इस पूजामें भली भांति प्रवृत्त होना चाहिये । पूजाकी विधि बराबर न हो, जिन भगवानके गुणोंका भी ज्ञान न हो, और केवलमात्र शुभपरिणामसे करी हुई जो पूजा वह अनाभोग द्रव्यपूजा कहलाती
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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