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________________ (२५१) सृष्टि ही से कराता दृष्टि आ रहा है। श्रीजिनप्रभसूरिरचित पूजाविधि तो इस प्रकार है कि- पादलिप्तमरि आदि पूर्वाचार्योने लवणादिकका उतारना संहारसे करनेकी अनुज्ञा दी है, तो भी सांप्रत सृष्टि ही से किया जाता है। __ स्नात्र करनेमें सर्वप्रकारकी सविस्तार पूजा तथा ऐसी प्रभावना इत्यादि होनेका संभव है, कि जिससे परलोकमें उत्कृष्ट फल प्रकट है । तथा जिनेश्वरभगवान्के जन्म-कल्याणकके समय स्नात्र करनेवाले चौसठ इन्द्र तथा उनके सामानिक देवता आदिका अनुकरण यहां मनुष्य करते हैं, यह इस लोकमें भी फल दायक है।। इति स्नानविधि.॥ प्रतिमाएं विविध भांतिकी हैं, उनकी पूजा करनेकी विधि में सम्यक्त्वप्रकरणग्रंथमें इस प्रकार कहा है कि गुरुकारिआइ केई, अन्ने सयकारिआइ तं बिति । _ विहिकारिआइ अन्ने, पडिमाए पूअणविहाणं ॥१॥ अर्थात्-बहुतसे आचार्य गुरु अर्थात् मा, बाप, दादा आदि लोगोंने कराईहुई प्रतिमाकी, तथा दूसरे बहुतसे आचार्य स्वयं कराई हुई प्रतिमाकी तथा दूसरे आचार्य विधि पूर्वक की हुई प्रतिमाकी पूजा करना ऐसा कहते हैं। परन्तु अंतिमपक्षमें यह निर्णय है कि, बाप, दादाने कराई हुई यह बात निरर्थक है इसलिये ममत्व तथा कदाग्रहको त्याग कर सर्व प्रतिमाओंको समानबुद्धिसे पूजना । कारण कि, सर्व
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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