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________________ ( ९६ ) छेकेनाप्युत्सुकेनापि, कार्यमेव यथोचितम् । सद्धर्ममकविनुप्राप्तमिव भोजनम् ॥ १ ॥ ६८० ॥ चतुर मनुष्यको उचित है कि चाहे कितनी ही उत्सुकता हो परन्तु प्रथम योग्य कार्यको अवश्य करे। जैसे समय पर भोजन करते हैं वैसे ही अवसर आ जाने पर धर्मकृत्य करना भी आवश्यकीय है। माता इसलोक में स्वार्थ करनेवाली है परन्तु यह तीर्थ तो इसलोक तथा परलोक दोनों ही में हितकर है; इसलिये उत्सुक होते हुए भी मैं इस तीर्थको वन्दना करके वहां आऊंगा। तूं माता से कहना कि मैं अभी आता हूं. तदनुसार चक्रेश्वरी देवीने शीघ्र ही जाकर कमलमालाको उक्त संदेश कह सुनाया । 4 5 इधर शुकराज वैताढ्य पर्वत के तीर्थ पर आकर अत्यन्त आश्चर्यकारक शाश्वत चैत्य में शाश्वती - जिन - प्रतिमाका पूजन कर अपना जन्म सफल माना । वापस आते समय दोनों नव वधूओं को अपने साथ ली तथा दोनों श्वसुर और मातामह (नाना ) गांगलिऋषिकी आज्ञा ले भगवान ऋषभदेवको प्रणाम कर विमान में बैठा, और बहुतसे विद्याधरोंका समुदाय साथ में ले धूमधाम से अपने नगर के समीप आया । उस समय संपूर्ण नगरवासी स्तुति करते हुए उसे देखने लगे। जैसे जयन्त इन्द्रकी नगरी में प्रवेश करता है उसी भांति शुकराजने अपने पिताकी नगरी में प्रवेश किया । पुत्रके कुशलपूर्वक आजानेसे
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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