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________________ ( ९३ ) जिससे राजाको ज्ञात हुआ कि यह तो मेरे मित्रका पुत्र है। शास्त्रमें कहा है कि, राजा (रवि) मित्रपुत्र (शनि) का शत्रु है; परन्तु आश्चर्यकी बात है कि वह राजा मित्रपुत्र शुकराज पर बहुत प्रीति रखने लगा तथा हर्षपूर्वक अपनी कन्या भी उसे दे दी । इसी रीतिसे ही प्रीति बढती है' राजाने चंपापुरीमें वरकन्याके विवाहका भारी उत्सव किया । उस समय वरका बहुत ही सत्कार किया। राजाके विशेष आग्रहसे शुकराज कुछ समय तक वहीं रहा । 'रसोई जिस भांति नमक ही से स्वादिष्ट व उत्तम होती है उसी प्रकार इस लोकके सर्व कार्य पूर्वपुण्य ही से सफल होते हैं, इसलिये विवेकी पुरुषोंने सांसारिक कार्य करते हुए योग्यतानुसार धर्मकार्य भी अवश्य करते रहना चाहिये ।' यह विचार कर एक दिन शुकराज कुमार राजाकी आज्ञा लेकर तथा पद्मावतीको पूछ कर विद्याधरके साथ वैताढ्य पर्वत पर चैत्यवन्दन करने को गया। चित्र विचित्र जिन-मंदिरसे सुशोभित उस पर्वतकी शोभा देखता और मार्ग चलता हुआ गगनवल्लभ नगरमें आया । वायुवेगने अपने मातापिताको अपने ऊपर किये हुए उपकारका वर्णन किया तो उन्होने हर्षसे अपनी कन्या वायुवेगा शुकराजको दी । विवाहोत्सव हो जानेके बाद शुकराज तीर्थ वन्दनके लिये बहुत उत्सुक हुआ, परन्तु आंतरिक प्रीति संस्कार करते हुए वायुवेगके मातापिताने उसे कुछ दिन वहीं रहने पर विवश किया। भाग्यशाली हो अथवा
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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