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________________ (८९) ऋषि बोले-"अहा ! बाल्यावस्थामें भी यह कितना आश्चर्यकारी क्षत्रियतेज है ? सत्य है सूर्यकी भांति सत्पुरुषोंका तेज भी अवस्थाकी अपेक्षा नहीं रखता।" राजा मृगध्वजने कहा कि, "बालक हंसराज कैसे भेजा जाय ? बालकके शक्तिमान होने पर भी पुत्रस्नेह वश मातापिताके मन में तो शंका बनी ही रहती है। पुत्र स्नेह ऐसा है कि भय न होने पर भी उससे मातापिताको पद पद पर भय दृष्टिमें आता है । क्या सिंहकी माता अपने पुत्रके सिंह होने पर भी उसके नाशकी शंका नहीं करती ?" उसी समय सुदक्ष शुकराज उत्साहपूर्वक बोला- हे तात! मैं प्रथम ही से विमलाचलतीर्थको वंदना करनेकी इच्छा करता हूं और यह अवसर भी आ मिला । जैसे नृत्य करनेके इच्छुक मनुष्यके कानमें मृदंगका गंभीर शब्द पडे, क्षुधातुर पुरुषको भोजनका निमंत्रण आवें तथा निद्रा ग्रसित व्यक्तिको बिछा हुआ बिछौना मिले उसी प्रकार मुझे यह उत्तम साधन प्राप्त होगया है इसलिये आपकी आज्ञासे मैं वहां जाऊंगा" शुकराजके ये वचन सुनकर राजा मृगध्वज मंत्रियोंके मुखकी तरफ देखने लगा, तब मंत्रीगण बोले--"ऋषिश्रेष्ठ गांगलि ऋषि तो मांगनेवाले हैं, आप दाता हैं, तीर्थस्थानकी रक्षा करनेका कार्यहै तथा रक्षा करनेवाला शुकराज है; इस लिये हमको इस कार्यमैं सम्मति देना उचित ही है "
SR No.022197
Book TitleShraddh Vidhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJain Bandhu Printing Press
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size14 MB
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