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________________ ६० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. १४ ० प्रतिबन्द्या प्रत्यवस्थानम् ० चानाकाङ्क्षादिपदेष्वप्रत्यायकत्वदर्शनादन्यत्राऽपि प्रमाणत्वसंशयः; प्रत्यक्षेऽपि तदनुद्धारात्। न च शास्त्रोक्तार्थानां विसंवाददर्शना पुनरपि सौगत आशंकते-न चानाकाङ्क्षादीति। अत्रैवमनुमानप्रयोगाः शब्दो न प्रमाणं प्रत्यायकत्वात्। तदपि कुत इति चेत्? उच्यते, शब्दो न प्रत्यायकः अनाकाङ्क्षादिपदसजातीयत्वात् । अत्र प्रतिबन्द्या समाधत्ते 'प्रत्यक्षे' इति । प्रतिबन्दी चैवम्, प्रत्यक्षं न प्रमाणं विसंवादिसजातीयत्वात् 'पीतः शङ्ख' इति प्रत्यक्षवदिति। यदि सौगतः अदुष्टं प्रत्यक्षं प्रमाणं अविसंवादित्वादित्यादिना समाधत्ते तदा आकाङ्क्षादिमत्पदं प्रमाणं अविसंवादित्वात् तादृशप्रत्यक्षवदिति समाधानं ममाऽपि सुलभमित्याशयः। तदुक्तं-"यच्चोभयोः समो दोषः परिहारस्तयोः सम" इति। (श्लो. वा.) * शब्द निर्णायक होने से प्रमाण है - स्याद्वादी * स्याद्वादी :- तुम क्या सिद्ध कर सकते हो बौद्धराज! बहुत होगा तो शब्दार्थ की तरह जगत को भी मिथ्या कह दोगे। इसके सिवा तुम्हारे बस की और क्या बात है? लेकिन यह मत भूलना कि मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक! सभी लोगों को शब्द और अर्थ के बीच वाच्य-वाचकभाव संबंध निर्विवाद मान्य है। "यह शब्द इस अर्थ का वाचक है और यह अर्थ इस शब्द से वाच्य है" इत्याकारक जो संकेत किया गया है, वही वाच्यवाचकभाव सम्बन्ध है। इसको ही अभिधेय-अभिधायकभाव भी कहते हैं। जब यह सम्बन्ध सब मनीषियों को मान्य है, तब इसकी सिद्धि के लिए अधिक प्रयास करने की जरूरत क्या? हाथ कंगन को आरसी क्या? फिर भी व्याकरण, शब्दकोश, आप्तपुरुषों का व्यवहार, उपमान आदि अनेक प्रमाण 'शब्द को अर्थ के साथ संकेत नाम का सम्बन्ध है' इस बात के साक्षी हैं। जिस शब्द का जिस अर्थ में संकेत होगा, उसी शब्द से उस अर्थ का बोध होगा। इसी सबब"प्रतिनियतबोध की उपपत्ति न होने से शब्द निर्णायक नहीं है" - एसा आपका कथन निराकृत हो जाता है। बौद्ध :- "भाषा अर्थनिर्णायक है" - यह आपका कथन ठीक नहीं हैं, क्योंकि आकांक्षादि से रहित वाक्यों से अर्थ का निर्णय श्रोता को नहीं होता है। 'घटेन पश्य' अर्थात् 'घट से देखो' - इस वाक्य से श्रोता को कुछ भी अर्थनिर्णय नहीं होता है। इस तरह योग्यता, आसत्ति आदि से शून्य वाक्य को सुन कर भी श्रोता को अर्थनिर्णय नहीं होता है। अतः भाषा को अर्थनिर्णायक कहना यह एक दुःसाहस है। * शब्दस्थल में प्रतिबन्दी * स्याद्वादी :- प्रत्य. इति । वाह भाई! दूध का जला छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता है। आकांक्षा, योग्यता आदि से शून्य वाक्य से अर्थनिर्णय न होने से आपने आकांक्षा-योग्यता आदि से संपन्न वाक्य को भी अर्थनिर्णायक न कहने का अपूर्व साहस कर दिया। वाह बौद्धराज ! मगर आप यह नहीं जानते कि मियाँ की जूती मियाँ के सर! शब्दस्थल में जो अनिष्ट आपादान आपने किया है वह तो प्रत्यक्षस्थल में आपके लिये भी समान है। कोई आपको यह कह दे कि - 'शंख में जो पीतिमा कि बुद्धि होती है, वह प्रत्यक्ष जैसे अप्रमाण है; वैसे ही अन्य प्रत्यक्ष भी अप्रमाण है, क्योंकि विसंवादिसजातीय है' तब आप क्या समाधान बताओगे? इस आपत्ति का उद्धार तो आपको करना ही पड़ेगा। बौद्ध :- यह तो बहुत सरल है। हम प्रत्यक्षमात्र को प्रमाण नहीं मानते हैं, किन्तु निर्दोष प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं। "जो प्रत्यक्ष दोषादि से रहित हो वह प्रमाण है" - 'ऐसा कहने से 'शंखः पीतः' इस प्रत्यक्ष में प्रमाणत्व नहीं आयेगा और इस से भिन्न निर्दोष सामग्री से उत्पन्न प्रत्यक्ष में प्रमाणत्व रहेगा। अतः कोई दोष नहीं है। स्याद्वादी :- तब तो यह समाधान हमारे पक्ष में भी समान रूप से लागु होता है। हम भी यही कहते हैं कि - 'जो वाक्य आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति आदि से संपन्न हो, आप्तपुरुष से कथित हो वह वाक्य प्रमाण है और इससे भिन्न आकांक्षादि से शून्य अनाप्तपुरुषोच्चरित वाक्य अप्रमाण है' - इस रीति से विषयविभाग निदर्शनपुरःसर भाषा को प्रमाण कहने में कोई क्षति नहीं है, क्योंकि 'घटेन पश्य' यह वाक्य आकांक्षा से शून्य है। अत एव वह प्रमाण नहीं है, मगर 'घटं पश्यं' अर्थात् "तुम घट को देखो" यह वाक्य तो आकांक्षादि से युक्त होने से प्रमाण ही है। अतः आकांक्षा आदि से युक्त भाषा को अर्थनिर्णायक होने से प्रमाण कहने में कोई क्षति नहीं हैं। बौद्ध :- प्रत्यक्षस्थल में और शब्दस्थल में समानता नही है किन्तु विषमता है। हम तो जो प्रत्यक्ष सदोष = विसंवादी हो उसको अप्रमाण कह सकते हैं, मगर आपके लिए यह कथन नामुमकिन है, क्योंकि शास्त्र, जो कि आपको प्रमाणरूप से मान्य है, जिन
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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