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________________ ५८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१.गा.१३ ० बौद्धमतेऽनुमानस्य परम्परया प्रामाण्यम् ० - विकल्पयोनयः शब्दा विकल्पाः शब्दयोनयः। कार्यकारणता तेषां नार्थं शब्दाः स्पृशन्त्यपि।। ( ) इति । एवं च न 'गामानये'त्यतः प्रवृत्त्यनुपपत्तिरपि। वक्तृविकल्पः शब्दजनकः शब्दश्च श्रोतृविकल्पजनक इति भावः । न हि आबालगोपालप्रतीतः शब्दार्थो निषिध्यते किन्तु तत्र सांवृतत्वमभ्युपगम्य तात्त्विकत्वं निषिध्यत इति निगूढार्थः । ननु शब्दस्य विकल्पमात्रजननाऽभ्युपगमे प्रवृत्तिर्न स्यात्, विकल्पस्याऽप्रमाणत्वात् तदुक्तं योगसूत्रे पतंजलिना"शब्दज्ञानानुपातिवस्तुशून्यो विकल्पः (यो.सू. १/९) इत्यत आह 'एव'मिति। शब्दार्थे सांवृतसत्यत्वाभ्युपगमात्, 'गामानये'ति वाक्यतः प्रवृत्तिः युज्यत इति। अयमाशयो विकल्पे पारमार्थिकत्वाऽभावेऽपि संवादिभ्रमेणैव प्रवृत्तिरुपपन्ना। संवादिभ्रमो नाम सफलप्रवृत्तिजनको भ्रमो यथा मणिप्रभायां मणिबुद्धिरिति । ननु शाब्दस्थले विकल्पामात्रजननेन सांवृतसत्यत्वाभ्युपमे सति शक्यते ह्येवं वक्तुं यदुतानुमानस्थलेऽपि हेतोर्विकल्पमात्रजननान्नानुमितौ पारमार्थिकसत्यत्वम्। तथा च सत्यनुमानस्य प्रमाणत्वं विलूनशीर्णं स्यादित्याशङ्कां सौगतो निरसितुमुपन्यस्यति न चेत्यादिना | समाधत्ते तत्र = हेतौ । अनुमितौ प्रमात्वविशेषस्याऽनुभवसिद्धस्यानपलपनीयतया तदन्यथानुपपत्त्या तत्कारणीभता व्याप्तिहेतनिष्ठा सिध्यतीत्यतो नानुमानस्य प्रमाणत्वं दुर्घटमिति तात्पर्यम | ___ वस्तुतस्तु बौद्धमते नानुमानं प्रत्यक्षवत् साक्षात्प्रमाणं किन्तु प्रणालिकया। तथाहि नार्थं विना तादात्म्यतदुत्पत्तिसम्बन्धप्रतिबद्धलिङ्गसद्भावः न तद्विना तद्विषयं ज्ञानं, न तज्ज्ञानमन्तरेण प्रागवधारितसम्बन्धस्मरणम्, तदस्मरणे नानुमानमित्यर्थाव्यभिचारित्वाद् भ्रान्तमप्यनुमानं प्रमाणमिति ध्येयम्। नन्वेवं सति शब्दोऽपि प्रमाणं विद्यमान होने से सदा के लिए शब्द की उत्पत्ति होती रहेगी और सारे जहाँ में कोलाहल ही सदा के लिए बना रहेगा। अतः शब्द और अर्थ में जन्यजनकभाव न होने से शब्द में अर्थ के साथ तदुत्पत्तिसंबंध भी संभव नहीं है। तादात्म्य और तदुत्पत्ति के सिवा अन्य कोई संबंध तो शब्द का अर्थ के साथ संभव नहीं है। अतः सिद्ध होता है कि शब्द को अर्थ के साथ कोई संबंध नहीं है। अतः शब्द से प्रतिनियत अर्थ का बोध नहीं हो सकता है। अतएव शब्द में अर्थनिर्णायकत्व और प्रामाण्य नहीं हैं। ____शंका :- शब्द को प्रतिनियत अर्थ का बोधक नहीं मानेंगे तब तो शब्द की उत्पत्ति ही न हो सकेगी, क्योंकि सब लोग शब्द में अर्थबोधकत्व का ज्ञान कर के ही शब्दोच्चारण करते हैं। आपके अभिप्राय के अनुसार यदि शब्द अर्थविषयक ज्ञान का जनक ही नहीं है तब तो शब्द की उत्पत्ति ही कैसे होगी? * विकल्प और शब्द में कार्यकारणभाव - बौद्ध * समाधान :- "विकल्पेभ्य' इत्यादि। आपको यह किसने पढ़ा दिया कि शब्द में अर्थबोधजनकत्व का प्रामाणिक भान होने पर ही लोग शब्द का उच्चारण करते हैं? लोग तो ऐसे ही "इस शब्द से इस अर्थ का श्रोता को बोध हो" - इस विकल्प से ही शब्द प्रयोग करते हैं और वे शब्द भी श्रोता के दिमाग में घटादिअर्थ का विकल्प उत्पन्न करने से ही चरितार्थ = सफल हो जाते हैं। लेकिन इससे-शब्द श्रोता के दिमाग में घटादि प्रतिनियत अर्थ का प्रामाणिक निश्चय उत्पन्न कराता है - यह सिद्ध नहीं होता है। कहा भी गया है कि - "शब्द की योनि = कारण विकल्प है और विकल्प की योनि = कारण शब्द है। विकल्प और शब्द के बीच ही कार्यकारण भाव है। शब्द तो अर्थ को छूते भी नहीं है। __ शंका :- यदि शब्द को अर्थाकार विकल्प का ही कारण मानेगे तब तो 'गाय को ले आओ' इत्यादि वाक्य को सुन कर श्रोता गाय लाने की प्रवृत्ति ही नहीं कर सकेगा, क्योंकि विकल्प तो एक कल्पना है, जो प्रमाण नहीं है। जो प्रमाण नहीं है, उससे प्रवृत्ति आदि व्यवहार कैसे हो सकता है? प्रेक्षावान् लोग तो प्रमाण से ही प्रवृत्ति करते हैं, अप्रमाणात्मक विकल्प से नहीं, अन्यथा अनध्यवसाय आदि से भी प्रवृति होने की आपत्ति आयेगी। समाधान :- 'एवं' इति । आपकी यह बात समीचीन नहीं है, क्योंकि बौद्धमत में सत्य के दो प्रकार है पारमार्थिक सत्य और सांवृतिक सत्य। विकल्प में पारमार्थिक सत्यत्व का हम निषेध करते हैं मगर सांवृतिक सत्यत्व का निषेध हम नहीं करते हैं। लोकव्यवहार की प्रवृत्ति तो शब्द और विकल्प में पारमार्थिक सत्यत्व न होने पर भी सांवृतिक सत्यत्व से हो सकती है। अतः शब्द
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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