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________________ * द्रव्यभाषालक्षणम् * ४९ एवं वचोयोगप्रभवा भाषेत्यपि निसर्गकाले भावभाषाऽनभ्युपगमे विरुद्ध्येत। वचोयोगो हि "निसर्गानुकूलः कायसंरम्भः, काययोगाहृतवाग्द्रव्यसमूहसध्रीचीनजीवव्यापारो वेत्यन्यदेतत् । उभयथाऽपि तज्जन्या भावभाषेत्युपेयम्, अन्यथा भाषापरिणत्यनुकूलवाग्योगवैकल्यात्। किं बहुना? एवं हि 'भाष्यमाणा भाषे'ति भागवतमपि वचनं विरुध्यते। अत्र भावभाषात्वस्यैव विधेयत्वात्, वस्तुतस्तु भावभाषाभिन्नत्वे सति भावभाषाजनकत्वस्यैव स्वरूपतो द्रव्यभाषालक्षणत्वम्, युगपद्विवक्षितैकविषयकद्रव्यभावोभयनिक्षेपस्यैकस्मिन् विरोधात्; अन्यथा भावजिनस्याऽपि भावजिनानन्तरहेतुत्वेन द्रव्यजिनत्वप्रसङ्गात् । ततश्च निसरणभाषाद्रव्याणामपि न स्वरूपतो द्रव्यभाषात्वमिति स्थितम् । तदुक्तं श्रीजिनदासगणिमहत्तरैः 'दव्ववक्कं नाम जाणि दव्वाणि भासत्ताए गहियाणि ण ताव उच्चारिज्जति सा भासा, तेण चेव उच्चारिज्जमाणाणि तमत्थं भासयंती भावभासा भवतित्ति । (द.वै.अ.७.नि.श्लो.२७१ जि.चू.) ग्रहणादिषु त्रिषु स्वरूपत एव द्रव्यभाषात्वाऽभ्युपगमे दोषान्तरमाह 'एव'मित्यादिना। निसर्गहेतुकायव्यापारस्यैव वचोयोगत्वाङ्गीकारे वचोयोगस्य स्वातन्त्र्यं वाहन्येतेति कल्पान्तरमाह - 'काययोगाहृतवाग्द्रव्यसमूहसध्रीचीनजीवव्यापार' इति काययोगगृहीतवाग्द्रव्यसमूहसहकृतजीवव्यापार इत्यर्थः। द्वितीयकल्पे च वाग्द्रव्यसचिवस्य जीवस्य व्यापाररूपः स्वतन्त्र एव वाग्योगः न तु काययोगविशेषरूपः। अत्र द्वितीयकल्पे वाग्द्रव्यनिसर्गकाले कायव्यापारो नास्तीति न, किन्तु सन्नपि न विवक्षितः, स्वतन्त्रवाग्योगप्रतिपादनपरत्वादिति सूक्ष्मेक्षिकया निभालनीयम्। उभौ सदादेशौ भगवदनुमतविचित्रनयाश्रितमहर्षिवचनानुयायित्वादिति द्योतनार्थमाह 'इत्यन्यदेतत्' इति। अन्यथेति निसर्गहेतुकायव्यापारजन्यत्वे वाग्द्रव्यालंबनकजीवव्यापारजत्वे वा सत्यपि भावभाषात्वं न स्यात्तर्हि तज्जनको वाग्योगो न स्यात भाषापरिणामा-नुकूलत्वाभावादिति प्रसङ्गापादनमेतत् । (ग्रन्थाग्रम्-१०००) कोई आग्रह नहीं है। मगर हमारा कहना तो यह है कि तादृशवचनयोग से जो उत्पन्न होता है वह भावभाषा ही है न कि द्रव्यभाषा। यह तो एक प्रसिद्ध नियम है कि जीव जिस कार्य के अनुकूल प्रयत्न करता है उस प्रयत्न से वह कार्य उत्पन्न होता है, अन्य कार्य नहीं। कुम्हार घटोत्पाद के अनुकूल प्रयत्न करे और पट की उत्पत्ति हो जाय यह तो कथमपि संभव नहीं है। इसी तरह यहाँ वचनयोग निसर्गानुकूल कायव्यापाररूप माना जाय तब उससे निसर्ग की उत्पत्ति अवश्य होगी, अन्यथा वह वचनयोग निसर्ग अनुकूल ही नहीं होगा अर्थात् वह वचनयोग वचनयोगरूप ही नहीं होगा, अन्यरूप ही होगा। चाहे निसर्ग कहो या चाहे भाषाद्रव्यों का त्याग कहो या चाहे भावभाषा कहो सिर्फ शब्द में ही फर्क है, अर्थ में नहीं। अतः तादृशवचनयोगजन्य भाषा को भावभाषास्वरूप ही मानना होगा। यदि वचनयोग को काययोग से गृहीत भाषाद्रव्यों के आलंबनवाले जीवव्यापारस्वरूप माना जाय तब भी इससे भावभाषा की ही उत्पत्ति होगी, क्योंकि गृहीतभाषाद्रव्यों के आलंबन से जीव गृहीतभाषाद्रव्यों में भाषापरिणाम का आधान कर के उन भाषाद्रव्यों को छोड़ने का ही काम करता है दूसरा नहीं। अतः तादृश जीवव्यापाररूप वचनयोग से जन्य भी भावभाषा ही होगी, न कि द्रव्यभाषा। तादृश वचनयोग से जन्य भाषा निसर्गरूप ही है। अतः निसर्ग भाषाद्रव्य में स्वरूपतः द्रव्यभाषात्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः ग्रहणादि तीन भाषाद्रव्यों में विवक्षा से ही द्रव्यभाषात्व का स्वीकार उचित है। द्रव्यप्राधान्य की विवक्षा से निसरणभाषाद्रव्य में द्रव्यभाषात्व के स्वीकार से भावभाषात्व का अपलाप नहीं होता है। अतः वचोयोगप्रभवा भाषा-इस सिद्धांत का भंग भी नहीं होता है और ग्रहणादि तीन भाषाद्रव्यों में द्रव्यभाषात्व की उपपत्ति भी हो सकती है। ___ * भाष्यमाणा भाषा - सिद्धांत का विरोध * _ 'किं बहुना' इत्यादि । अन्य शास्त्रवचनों के साथ विरोध की क्या बात करे? अरे! भगवती सूत्र के साथ भी विरोध आयेगा, यदि - "ग्रहणादि तीनों भाषा स्वरूप से हि द्रव्यभाषा है न कि विवक्षा से द्रव्यभाषा" ऐसे आपके अभिप्राय का स्वीकार किया जाय । देखिये, भगवती सूत्र में वीर प्रभु ने गौतमस्वामी से कहा है कि - "भाषणकाल में ही भाषा होती है, भाषा के पूर्व काल में या पश्चात् काल में नहीं" | यहाँ स्वयं भगवंत ने ही भाषणकाल में भावभाषात्व का विधान किया है। यदि भाषण काल में भावभाषात्व का विधान
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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