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________________ ४४ भाषारहस्यप्रकरणे यथासूत्रं युक्तमुत्पश्यामः | ८ || स्त. १. गा. ९ ० भिन्नभाषाद्रव्योंमेंपरस्परअल्पबहुत्वम् O अथैतैरेव भेदैर्भिद्यमानानां मिथोऽल्पबहुत्वमाह 'हुंति अनंतगुणाई दव्वाइं इमेहिं भिज्जमाणाइं । पच्छाणुपुव्विभेआ 'सव्वत्थोवाइं चरमाइं ।। ९ ।। भाषाद्रव्यध्वंसजनकत्वे, किं पुनरितरथेत्यपिशब्दार्थः । न तथात्वं = न भाषाद्रव्यनाशकत्वं, आदाननिसर्गप्रयत्नजभेदे भाषाद्रव्यनाशकारणताऽवच्छेदकरूपस्य भेदविशेषत्वस्याऽसत्वात् । इदमत्र ध्येयं यदुताऽसंख्येयावगाहनावर्गणाप्रमितक्षेत्रातिक्रमप्रयुक्तभेदस्याऽभिन्न भाषाद्रव्यत्वेन भाषाद्रव्यध्वंसकत्वेऽपि न भाषाद्रव्यत्वेन रूपेण भाषाद्रव्यध्वंसकत्वम् । तथा सति संख्येययोजनगमनात्पूर्वमेव भाषात्वेन भाषाया विनष्टत्वेन "संखेज्जाइं जोयणाइं गंता विद्वंसमावज्जंति" (प्र.भा. सूत्र १६९) इत्यागमविरोधप्रसङगात् भाषाद्रव्याणामसंख्येयकालचक्रप्रमितस्थितिप्रतिपादकागमविरोधप्रसङ्गाच्चेति दिक् ||८ ।। 'सव्वत्थोवाइं' इति । इदञ्चाल्पबहुत्वं खण्डादिभेदभिन्नपुद्गलद्रव्याऽपेक्षया न तु जीवादिद्रव्यापेक्षया, अनधिकाराद्, बाधाच्च। नापि खंडादिभेदभिन्नभाषाद्रव्याऽपेक्षया सूत्रस्य व्यापकत्वेन संकोचे मानाभावात् । सूत्रप्रामाण्यादिति । केवलिभाषितागमनिष्ठप्रामाण्यमाश्रित्येत्यर्थः । सर्वज्ञभाषितत्वात् कषछेदतापशुद्धत्वाच्च जैनागमानां प्रामाण्यम् । एतेन निर्ग्रन्थानामस्माकमागमानां यत् सांख्यतत्त्वकौमुदीकारेण-विगानात् विच्छिन्नमूलत्वात् प्रमाणविरुद्धार्थाभिधानाच्च कैश्चिदेव म्लेच्छादिभिः पुरुषापसदैः पशुप्रायैः परिग्रहाद्वा (सां. का. ५. कौ.) इत्यादिनाऽप्रामाण्यमुक्तं तन्निरस्तम्, विगानादीनामसिद्धेश्च। किञ्चावेदमूलकत्वस्याप्रामाण्यव्याप्यत्वाभावात् न ततः तत्सिद्धिः हिंसादिप्रतिपादकत्वेन कषादिशुद्ध्यभावेन च वेदानामप्रमाणत्वादिति दिक् । सम्प्रदायः = अविच्छिन्नगुरुपरम्परावतीर्णोपदेश इत्यर्थः । सप्रसङ्गं = प्रसङ्गसङ्गत्येत्यर्थः । अथेति। आनन्तर्यार्थः। तदुक्तम् - "अथ प्रक्रियाप्रश्नान्तर्यमङ्गलोपन्यासनिर्वचनसमुच्चयेषु इति ।" अनेनाऽवसरसङ्गतिः प्रदर्शिता । अवसरस्तु विषयसिद्ध्या प्रतिबन्धकीभूतशिष्यजिज्ञासानिवृत्तावनन्तरमवश्यवक्तव्यत्वम् । । ९ । । किन्तु विशेषभेद = अमुक भेद ही कार्यद्रव्य का नाशक है। आशय यह है कि जिस भेद में भेदविशेषरूपता = वैलक्षण्य है वह भेद कार्यद्रव्यनाशक है, अन्य भेद नहीं। जब वक्ता भाषाद्रव्यों का मंद प्रयत्न से ग्रहण और त्याग करेगा तब वे भाषाद्रव्य - अपने अवगाह क्षेत्र से असंख्यगुण क्षेत्र तक अखंडितरूप से गति करने के बाद खंडित होगे = भिन्न होगे । भाषाद्रव्यों का गतिविशेषप्रयुक्त यह जो भेद होता है उसमें कार्यद्रव्य = भाषाद्रव्य के नाश का कारणताच्छेदक भेदविशेषत्व है। अतः वह भेद अभिन्नरूप से = अखंडितरूप से भाषाद्रव्य का नाश करेगा । मगर जब वक्ता तीव्र प्रयत्न से भाषाद्रव्यों का ग्रहण और त्याग करता है, तब उन प्रयत्नों से भाषाद्रव्य में जो भेद उत्पन्न होता है वह भाषाद्रव्य का नाशक नहीं है, क्योंकि उस भेद में भाषाद्रव्यनाश की कारणता का नियामक भेदविशेषत्वात्मक धर्म नहीं है। अतः आपने जो अनिष्ट आपादन किया है, वह गलत सिद्ध होता है। इस तरह नैयायिक के दांत खट्टे करने के बाद विवरणकार अंत में कहते हैं कि हमारी यह मान्यता आगम के अनुसार है। अतः अपसिद्धांत आदि दोषों से भी मुक्त है ॥८॥ खंडादि भेदों से भिद्यमान भाषा द्रव्यों का अल्पबहुत्व प्रकरणकार ९वीं गाथा से बताते हैं । गाथार्थ :- खंडादि भेदों से भिन्न होते हुए द्रव्य पश्चानुपूर्वी की अपेक्षा से अनंतगुण होते हैं। अंतिम भेद से भिन्न द्रव्य अन्य भिन्नद्रव्यों की अपेक्षा से कम = न्यून होते हैं । ९ । विवरणार्थ :- खंडादि ५ भेदों से भिन्न होते हुए भाषाद्रव्य पश्चानुपूर्वी से अर्थात् पीछे से क्रमिक गिनती करने पर अनंतगुण होते १ भवन्ति अनन्तगुणानि द्रव्याणि ऐभिर्भिद्यमानानि । पश्चानुपूर्विभेदात्सर्वस्तोकानि चरमाणि । १९ ।। २ अत्र मुद्रितप्रतौ 'इमेहि' इति पाठो वर्तते । ३ अत्र मुद्रितप्रतौ 'सव्वत्थोवाइ' इति पाठो वर्तते ।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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