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________________ * भाषाद्रव्यग्रहणं प्रति वचोयोगपरिणतात्मप्रदेशानां कारणत्वविचार: * २७ । अथ स्पृष्टास्पृष्टादिजिज्ञासायामाहपुट्ठोगाढ-अणंतर-अणु-बायर-उढ्ढमहतिरियगाई। आइविसयाणुपुवीकलियाई छद्दिसिं चेव।।४।। उक्तलक्षणानि भाषाद्रव्याणि स्पृष्टान्येव = आत्मप्रदेशैः सह सङ्गतान्येव गृह्णाति माऽस्पृष्टानि ।।१।। तान्यवगाढान्येव = अणंतगुणलुक्खाइं गेण्हइ' इह किल चरमं सूत्रमनन्तरमिदमुक्तं 'अणंतगुणलुक्खाइंपि गिण्हइ' ततः सूत्रसम्बन्धवशादिदमुक्तं, जाइं भंते! जाव अणंतगुणलुक्खाइं गेण्हइं, इति 'यावता जाइं भंते! एगगुणकालवण्णाइं' इत्याद्यपि द्रष्टव्यं, (प्र. भा. सू. २६८ म. वृ.) अत्र यो विशेषः स च भावित एव । शेषं स्पष्टम् ।।३।। इहात्मप्रदेशैः संस्पर्शनमात्मप्रदेशावगाहक्षेत्राबहिरपि सम्भवतीत्यत आह "अवगाढान्येवे" ति। "येषु आत्मप्रदेशेषु" इत्यादि । अत्रेदं ध्येयं अवगाह आकाशस्य गुणो न तु जीवस्य । अतः आत्मप्रदेशेषु भाषाद्रव्याणि अवगाढानीति वक्तुं नार्हति तथापि आधारस्य कथञ्चिदाधेयाभेदादुपचारेणाकाशप्रदेशकथनं न विरुद्धम् । वस्तुतस्तु प्रतियोगितासम्बन्धेन भाषाद्रव्यग्रहणं प्रति वचोयोगपरिणताऽऽत्मप्रदेशानां स्ववत्त्याधेयतानिरूपिताधिकरणतावच्छेदकावच्छिन्नाधारतानिरूपिताधेयतावत्त्वसम्बन्धेन कारणता। तेन नात्मप्रदेशानधिकरणदेशावच्छेदेन गगनेऽवगाढानां भाषाद्रव्याणां ग्रहणम्, प्रतियोगितासम्बन्धेन ग्रहणविशिष्टेषु भाषाद्रव्येषु तादृशाऽऽधेयतावत्त्वसम्बन्धेन वचोयोगपरिणतात्मप्रदेशानामसत्त्वात्, भाषाद्रव्यनिष्ठाधेयतानिरूपिताधिकरणताया वचोयोगपरिणतात्मप्रदेशनिष्ठाधेयतानिरूपिताधिकरणतावच्छेदकीभूताकाशप्रदेशानवच्छिन्नत्वात्। न वा स्वेतरात्मप्रदेशाधिकरणदेशावच्छेदेन गगनेऽवगाढानां भाषाद्रव्याणां स्वैरात्मप्रदेशैर्ग्रहणम् । नापि स्वाधिकरणदेशावच्छेदेन गगनेऽवगाढानां भाषाद्रव्याणां स्वेतरात्मप्रदेशैर्ग्रहणमित्यादि विभावनीयं समाकलितस्वसमयरहस्यैरिति दिक् । यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि - 'जीव जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है वे क्या जीव से संबद्ध स्पृष्ट होते हैं या नहीं?' इत्यादि इसका समाधान प्रकरणकार चतुर्थ श्लोक से कर रहे हैं। गाथार्थ :- जीव स्पृष्ट, अवगाढ, अनंतर, अणु, बादर, ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग् दिशा में रहे हुए, ग्रहण के आद्य-मध्यम और अंतिम-समय में ग्रहण किये जानेवाले वक्ता के विषयभूत आनुपूर्वी से युक्त और छ दिशाओं से आये हुए ही भाषापरिणमन योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है।४। * जीव स्पृष्ट आदि भाषाद्रव्यों को ही ग्रहण करता है *. विवरणार्थ :- उक्तलक्षणानि. इत्यादि। तृतीय श्लोक में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा जिनका विचार किया गया है, वे भाषायोग्यद्रव्य जब जीव से स्पृष्ट होते हैं, तभी जीव उनको ग्रहण करता है। जो भाषाद्रव्य वक्ता जीव से असंबद्ध हैं, अलग हैं उनको जीव ग्रहण नहीं कर पाता।। जिज्ञासा :- आत्मा से संबद्ध भाषाद्रव्य के दो प्रकार हो सकते हैं। प्रथम प्रकार है जीवप्रदेश जिन आकाशप्रदेश में रहे हुए हैं, उन्हीं आकाशप्रदेश में रहे हुए भाषाद्रव्य तथा दूसरा प्रकार है जीव के प्रदेश जिन आकाशप्रदेश में रहे हुए हैं उनके अनंतर आकाश प्रदेशो में रहे हुए भाषाद्रव्य । जीव क्या अपने अवगाह के आधारभूत आकाशप्रदेश में रहे हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है या अपने अवगाह के अनाधारभूत संस्पृष्ट आकाशप्रदेश में रहे हुए भाषाद्रव्यों को? समाधान :- जीव जिन आकाशप्रदेश में रहा हुआ है, उन्हीं आकाशप्रदेशों में रहे हुए स्पृष्ट भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, अन्य अनवगाढ अनंतर स्पृष्ट भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण नहीं करता है। जीव का यह स्वभाव है कि वह अपने आधारभूत आकाशप्रदेश में रहे हुए ही सूक्ष्मद्रव्यों को ग्रहण करता है।। जिज्ञासा :- जीव अपने आधारभूत आकाशप्रदेश में रहे हुए अनन्तर अवगाढ भाषा द्रव्यों को ग्रहण करता है या परंपर अवगाढ १ स्पृष्टावगाढानन्तराणुबादरोर्ध्वाधस्तिर्यग्गतानि। आदिविषयानुपूर्वीकलितानि षड्दिग्भ्यश्चैव ।।४।।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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