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________________ २४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा.३ ० शब्दे स्पर्शमीमांसा 0 चेति । अत्र चावस्थितयोः स्पर्शयोरव्यभिचरितत्वेनाऽविवक्षणाद्वैकल्पिकस्पर्शमाश्रित्य चतुःस्पर्शवन्तीति निर्देश इति सम्प्रदायः । न चायं पर्यनुयोज्यो विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति भावनीयम्। षट्स्पर्शप्रतिषेधस्य प्रतिपादितत्वात्, व्याख्याप्रज्ञप्तौ गुरुलघु-मृदु-कर्कशस्पर्शानां बादरस्कन्धेष्वेव प्रतिपादनाच्च । षट्खंडागमेऽपि भाषावर्गणायां चतुःस्पर्शत्वमुक्तं 'चदुपासाओ' (षट्खंडागम ५/६/७८३) इत्यादिना। यत्तु धवलायामेतत्सूत्रव्याख्याने तेजोवर्गणातिदेशेन "णिद्धल्हुक्खाणमेक्कदरो, सीदुण्हाणमेक्कदरो, कक्खडमउआणमेक्कदरो, गरूअलहुआणमेक्कदरो पासो" इति वीरसेनेनोक्तं तदविचारितरमणीयम्, भगवत्यादिभिर्विरोधात् । 'सम्प्रदाय' इति। विवरणकारेणात्र वर्णादिस्पर्शान्तविवरणं प्रज्ञापनावृत्तिमवलम्ब्य कृतम्। 'भावनीयमिति' । अत्रेदमस्माकमाभाति - कार्मणवर्गणानिरूपणे बंधशतकचूर्णी "ताई एक्केक्काइं खंधदव्वाइं पंचवन्नाई, दुगंधाई, पंचरसाइं, निझुण्हं, णिद्धसीयलं, लुक्खुण्हं, लुक्खसीयलं, मउयं लहुयमिति चउफासाइं" त्ति (बं. श. चू. श्लो. ८७ वृत्ति) शिवशर्मसूरिभिरुक्तम्। अतः प्रज्ञापनायां कार्मग्रन्थिकाभिप्रायेण मलयगिरिचरणैर्भाषापदे "मृदुलघुरूपौ स्पर्शाववस्थितौ ताववस्थितत्वादेव व्यभिचाराभावान्न गण्येते" इत्युक्तं संभवेत् तदनुवादरूपेण च प्रकरणकारेणात्रोक्तं स्यात्। तथा सैद्धान्तिकमताभिप्रायेण पर्यायपदे च तैरेव 'परमाण्वादीनामित्यादितःशीतोष्णस्निग्धरूक्षरूपाश्चत्वार एव स्पर्शा' इत्यन्तं (प्रज्ञा. पद-५/सू. १२० वृत्ति) व्याख्यातमिति। .. अत्राऽपीदं ध्येयं, मुनिचन्द्रसूरिभिः बन्धशतकचूर्णिटिप्पणे "मउयं लहुयमिति। यदत्र मृदुलघुस्पर्शाभ्यां अवस्थायिभ्यां युक्तत्वेन स्निग्धमुष्णमित्यादिभिश्चतुर्भिश्च द्विकसंयोगैश्चतुःस्पर्शत्वमुक्तं तद् व्याख्याप्रज्ञप्त्यादिभिः सह विरुद्धमिव भाति। तत्र स्निग्धरूक्षशीतोष्णरूपाणामेव चतुर्णा स्पर्शानां कर्मद्रव्येष्वभिधानात्" (बं. श. श्लो. ८७ चूर्णिटिप्पणे) इत्यभिहितम् । उदयप्रभसूरिभिरपि बन्धशतकचूर्णिटिप्पणे "तत्र मृदुलघू अवस्थितौ, द्वौ तु स्निग्धोष्णौ स्निग्धशीतौ वा, रूक्षोष्णौ रूक्षशीतौ वाऽविरुद्धौ भवतः। प्रज्ञप्तौ तु स्निग्धरूक्षशीतोष्णा उक्ताः" (बं. श. श्लो. ८७ उस स्कंध में समुदाय में, जो कि एक समय गृहीत भाषाद्रव्य समूह का अंशरूप है, तीन स्पर्श होते हैं। इसी तरह मृदुस्पर्श के साथ अन्य उष्ण और ऋक्ष स्पर्श का योग होने पर तीन स्पर्श की स्कंधसमुदाय के एक देशभूत परमाणुसमुदायात्मक स्कंध में भावना करने की 'विवरणकार' सूचना करते हैं। इस विषय में अधिक सूक्ष्म विचार किया जा सकता है। इसकी सूचना करने के लिए 'भावनीयम्' पद का प्रयोग किया गया है। इस तरह कतिपय भाषाद्रव्यों में चार स्पर्श भी होते हैं। समुदाय की अपेक्षा से भाषाद्रव्य में स्पर्शसंख्या का विचार किया जाय तब एक समय में गृहीत भाषाद्रव्यसमूह में अवश्य चार स्पर्श होते हैं, न न्यून और न अधिक। चार स्पर्श की भाषाद्रव्य समूह में उपपत्ति इस तरह विवरणकार ने की है कि - "भाषाद्रव्यों के स्कंध में मृदु-लघु स्पर्श अवस्थित सदा रहनेवाले होते हैं तथा अन्य दो स्पर्श के युगल स्निग्ध-उष्ण, स्निग्ध-शीत, ऋक्ष-उष्ण, और ऋक्ष-शीत चार युगल में से कोई भी एक युगल होता है। इस प्रकार मृदु-लघुअन्यतम कोईभी एक युगल= ४ स्पर्श होते हैं। यहाँ मृदु-लघु स्पर्श अवस्थित होने से भाषाद्रव्य के स्पर्श की संख्या में परिगणित नहीं है। जब कि स्निग्ध-उष्ण इत्यादि चार युगल हैं वे अनवस्थित=अनियत होने से भाषाद्रव्यस्पर्श की संख्या में परिगणित हैं। तात्पर्य यह है कि भाषाद्रव्य में परमार्थ से मृदु-लघु, शीत-उष्ण, स्निग्ध-ऋक्ष ये छ स्पर्श होते हैं। इनमें से मृदु-लघु स्पर्श भाषाद्रव्यस्कंध के प्रत्येक परमाणु में वैकल्पिक होते हैं। भाषाद्रव्य के किसी परमाणु में मृदु-लघु तथा स्निग्धोष्ण स्पर्श होते हैं, किसी परमाणु में मृदु-लघु तथा स्निग्ध-शीत स्पर्श होते हैं, किसी परमाणु में मृदु-लघु तथा ऋक्ष-उष्ण स्पर्श तथा किसी परमाणु में मृदु-लघु तथा ऋक्ष-शीत स्पर्श होते हैं। स्पष्ट है कि किसी भी भाषाद्रव्य में मृदु-लघु स्पर्श अवश्य हैं, नियत हैं तथा स्निग्ध-उष्ण आदि स्पर्श के चार युगलो में से एक युगल होता है। अतः समुदाय की अपेक्षा भाषाद्रव्यों में मृदु-लघु स्पर्श अवस्थित होने से उनका व्यभिचार अभाव न होने से वे अपरिगणित हैं, भाषाद्रव्यों के समूह में उनकी विवक्षा=गणना नहीं की गई है और शेष शीत आदि चार स्पर्श अनियत होने से भाषाद्रव्यों में उनकी संख्या की गणना की गई है। इस तरह भाषाद्रव्यों के समूह में समुदाय की अपेक्षा चार स्पर्श होते हैं। यह प्राचीन सम्प्रदाय है। 'नच.' इत्यादि। यहाँ यह शंका कि - "भाषाद्रव्य में मृदु-लघु स्पर्श अवस्थित होने से अविवक्षित हैं और शेष शीत-उष्ण-स्निग्ध
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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