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________________ ३३८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. १०० ० प्रवृत्ति-फलयोरनेकान्तैकान्तविमर्शः ० तथा सम्यग् गुणेषु = चारित्रपालनोपायेषु प्रवर्तेत । न चाऽत्र प्रवृत्तौ एकान्तः, किन्तु राग-द्वेषपरित्यागलक्षणफल एव, फलेच्छायाः फलसिद्धिं विनाऽपूर्णत्वात्, उपायेच्छापूर्तेस्त्वन्यतर - सम्पत्त्याऽपि निर्वाहात् । न च फलविशेषसम्पत्तये उपायविशेषे प्रवृत्तिनियमः, __ननु स्वेच्छया यत्र क्वचित् कारणे प्रवृत्तौ सत्यां कथं कार्योपायेच्छापूर्तिस्स्यात्, अन्यथा फललाभं विनापि फलेच्छापूर्तिस्स्यात्, एवं च पुरुषार्थोच्छेदः स्यात्। अतो यावत्कारणेष्वेव प्रवृत्तियुज्यत इत्याशङ्कां निराकरोति न चेति। अत्र-प्रवचने, प्रवृत्तौ स्वाध्यायतपआदिविषयकप्रवृत्तौ, एकान्तः अवश्यंभावः। सकलोपाये प्रतिनियतोपाये वा प्रवृत्तौ नियमो नास्तीति भावः। किं सर्वथा नियमो नास्तीत्याशङ्कायामाह किन्त्वति। एवेत्यनन्तरमेकान्त इत्यनुषज्यते। फलैकान्ते हेतुमाहफलेच्छाया: रागद्वेषपरित्यागलक्षणफलाभिलाषस्य फलसिद्धि-प्रोक्तफलोत्पादं विना अपूर्णत्वात् अपरिनिष्ठितत्वादिति। उपायानेकान्ते हेतुं प्रदर्शयति उपायेच्छापूर्तेः रागद्वेषविलयरूपफलोपायनिष्ठायाः तुर्विशेषद्योतने, अन्यतरसम्पत्त्याऽपि स्वाध्यायतपआद्यन्तरोपायलाभेन किं पुनर्यावदुपायलाभेनत्यपिशब्दार्थः, निर्वाहात्=प्रयोज्यत्वात् । अयं भावः प्रकृते फलस्यैकत्वेन तदप्राप्तौ न तत्परिपूर्तिः सम्भवति उपायानां त्वनेकत्वेन तदेकतरलाभेऽपि तत्पूर्तिः स्यादेवेति उपायानेकान्तः फलैकान्तश्च युक्त एव । ___ ननु यथा कपालत्वावच्छिन्नस्य घटसामान्यकारणत्वेऽपि नीलघटं प्रति नीलकपालस्यैव कारणत्वेन तदुत्पादार्थं तत्रैव प्रवृत्तियुज्यते न कपालसामान्ये; नीलघटकारणताया नीलकपालत्वावच्छिन्नत्वेन कपालत्वानवच्छिन्नत्वात् तथैव रागद्वेषविलयविशेषलाभार्थमुपायविशेष एव प्रवृत्तियुज्यते न तूपायसामान्ये कार्यविशेषस्योपायसामान्याऽप्रयोज्यत्वादित्याशङ्कां निरसितुं प्रदर्शयति न चेति। फलविशेषसम्पत्तये फलविशेषलाभाय उपायविशेष प्रतिनियतोपाये, प्रवृत्तिनियम-प्रवृत्त्येकान्तः।। के प्रधान कारण है, विलय हो वैसे चारित्रपरिपालन के उपायभूत गुणों में अच्छी तरह प्रवर्तन करना चाहिए। जिनशासन में दान, शील, तप, भाव, स्वाध्याय, वैयावच्च, परमात्मभक्ति आदि अनेक योग (उपाय) बताए गये हैं। मगर इनमें से अमुक ही योग में प्रवृत्ति करनी चाहिए अमुक में नहीं या सब में? ऐसा एकान्त नहीं है। मगर इतना जरूर है कि इन सब उपायों से राग और द्वेष के विलयरूप फल की प्राप्ति में एकान्त है। अर्थात् प्रतिनियत ही योग में प्रवर्तन का नियम नहीं है। चाहे दान में, चाहे शील में, चाहे तप में और चाहे भावधर्म में प्रवृत्ति हो मगर उससे राग, द्वेष का विलय होना जरूरी है। राग-द्वेषविलय जिससे प्राप्त हो वह योग उपादेय है। यहाँ रागद्वेषविलयरूप फल में एकान्त होने का कारण यह है कि मुमुक्षु के लिए कर्ममुक्ति लक्ष्य होती है और जब तक राग-द्वेष का संपूर्ण विलय न हो तब तक वह अप्राप्य है। अतः रागद्वेषविलय की जब तक प्राप्ति न होगी तब तक उसकी प्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण नहीं होगी। मगर "रागद्वेषक्षय के अमुक उपाय में ही प्रवृत्ति होने पर रागद्वेषविलयरूप फल के उपाय की इच्छा पूर्ण होती है" ऐसा नहीं है। रागद्वेषक्षय के किसी भी उपाय में प्रवृत्ति होने पर भी उपाय इच्छा पूर्ण होती है। अतएव अमुक योग में ही प्रवर्तन करना-ऐसा यहाँ नियम नहीं है। जब शरीर स्वस्थ है तब तपश्चर्या, वैयावच्च, स्वाध्याय आदि से रागद्वेष का विलय कर सकते हैं। जब बीमारी आ जाए तब रोग-परिषहसहनरूप संवरधर्म की आराधना द्वारा रागद्वेष का विलय कर सकते हैं। बीमारी के समय में 'मेरा यह स्वाध्याय रह गया, यह मुझसे आगे बढ जाएगा' इत्यादि आर्तध्यान करना नामुनासिब है; चूंकि स्वाध्याय के द्वारा जो प्राप्य है, वह रोगपरिषह सहन कर के भी प्राप्त होता ही है। अतः प्रवृत्ति का एकान्त मुमुक्षु के लिए त्याज्य है। हाँ, रागद्वेषविलयरूप साध्य में जरूर एकान्त कर्तव्य है। शंका :- न च फल, इति । सामान्य फल की प्राप्ति के लिए सामान्य उपाय में प्रवृत्ति हो वह उचित है, मगर फलविशेष की प्राप्ति सामान्य उपाय से नहीं हो सकती है। जैसे कि घट सामान्य के उपाय में प्रवृत्ति करने पर घटविशेष यानी पीतघट इत्यादि की प्राप्ति नहीं होती है। पीतघट की प्राप्ति के लिए तो पीतघट के उपाय में ही प्रवृत्त होना चाहिए। इस तरह सामान्य रागद्वेषविलयरूप फल की प्राप्ति के लिए सामान्य उपाय में प्रवृत्ति करना ठीक है मगर विशेष राग-द्वेषविलयरूप फल की प्राप्ति के लिए उपायविशेष में ही प्रवृत्ति करना मुनासिब होगा। अन्यथा विशेष फल की प्राप्ति न होने से फलविशेषप्राप्ति की अभिलाषा अपूर्ण रह जाएगी।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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