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________________ ३३० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९५ ० वातादिविषयकविधिनिषेधवचनपरिहारः ० तत्स्वामिद्वेषादिदोषप्रसङ्गात् । तथा वात-वृष्टि-शीतोष्ण-क्षेम-सुभिक्षादिकमपि भवतु मा वा' इति च न वदेत् विनाऽतिशयप्राप्तं वचनमात्रात् फलाभावेन मृषावादप्रसङ्गात् तथाभवनेऽपि आर्तध्यानभावात् अधिकरणादिदोषप्रसङ्गात् वातादिषु सत्सु सत्त्वपीडापत्तेश्च । तत्स्वामिद्वेषादीति। वचनसिद्धिसदभावे तथाभवनेनाधिकरणदोषः, तदभावे अपि तदनुमतिदोषः तथा तत्पक्षीयदेवस्वाम्यादेः द्वेषः, आदिपदेनोपसर्गादेः ग्रहणम् । तदुक्तम् 'देवाणं मणुयाणं च तिरियाणं च वुग्गहे । अमुगाणं जओ होउ मा वा होउ त्ति णो वए ।। (द.वै. ७४९)। ___ अधिकारान्तरप्रदर्शनार्थमाह तथा वातेति। तदुक्तं 'वाओ वुटुं व सीउण्हं खेमं घायं सिवंति वा । कया णु होज्ज एआणि? मा वा होउ त्ति णो वए।। (द.वै. ७/५०) विनाऽतिशयप्राप्तमिति । अतिशयो वचनसिद्ध्यादिरूपः प्रकृते ज्ञातव्यः। तथाभवनेऽपीति। काकतालीयन्यायेन तथासंवादेऽपीति। आर्तध्यानप्रसङ्गादिति । इष्टसम्प्रयोगानिष्टवियोगादिलक्षणार्तध्यानापत्तेरिति । तदुक्तं वाचकमुख्येन 'आर्त्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे। तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः । वेदनायाश्च । विपरीतं मनोज्ञानाम्' (तत्त्वा. ९/३१-३२-३३) तदुक्तं ध्यानशतकेऽपि 'अमणुण्णाणं सद्दाइविसय-वत्थूण दोसमइलस्स। धणियं विओगचिंतणमसंपओगानुसरणं च'।। (ध्या.श. ६)। इत्यादि। वातादिषु सत्सु सत्त्वपीडापत्तेश्चेति। अनिष्टवातेनोपघातो भवेत् वृक्षादिभङ्गो वा स्यात् वायुकायविराधनञ्च । वृष्ट्या पिपीलिकादिव्यापत्तिः स्यात्, उष्णयोनयो वनस्पतयो नश्येयुः, शीतेन प्रायः तिर्यग्मनुष्यादयः पीड्यन्ते, अग्निं वा प्रज्वालयेयुः, उष्णेनाऽपि परितापनादयो दोषाः। क्षेम = राजविडवरशून्यमिति हरिभद्रसरयः । व्यवहारभाष्यवत्तौ च 'क्षेमं नाम सुलक्षणं यद् वशात् सर्वत्र राज्ये नीरोगता' (व्य.भा.उ. ३/गा. २०९) इत्युक्तम् । सुभिक्षं प्रसिद्धं, घ्रातमप्युच्यते। तदुक्तं चूर्णी 'खेमेऽवि चोरसेवगादीणं अंतराइयदोषा भवंति । एते य निब्भया तेसु कम्मेसु पवत्तमाणा एगिदियाईणं भयंकरा भवंति। घायेऽवि संनिचयकारिणो वाणियगा पीलिज्जति' (द.वै.जि.चू.पृ. २६२)। इतो व्याघ्र इतस्तटीन्यायेन प्रकृते वातादिविषये मौनमेवाङ्गीकर्तव्यं साधुनेति तात्पर्यम्। इदमेवाभिप्रेत्योक्तं प्राचीनतमचूर्णी 'वात-वुट्ठ-सीउण्हेहिं वा अप्पणो पंयाणं वा पीडणमसहमाणो पंतजणवयरोसेण वा खेम-वाय-सिवाणि रुक्खप्पभंजण-सत्तुप्पिलावण-हिमडहणसत्तपरितावण-जणवदडहण-लूडण-छुधामरण-भयादयो दोसा इति 'एताणि कया होज्ज'त्ति णो वदे। तदभावे पुण अतिधम्म-तणभंग-जवाणिप्फत्ति-सत्तुपरितावणा-मंतिचारभडवित्तिपरिच्छेदभिक्खाभाव-मसाणोवज-विपाणातिवित्तिच्छेदादी दोसा इति णो वदे। ण वा कस्सति वयणेण भवति वा ण वा, केवलमधिकरणाणुमोदणं (द.वै.अ.चू.पृ. १७७) . हैरान करने के लिए उपसर्ग आदि भी करे। इसीलिए ऐसा दुष्ट आशंसा से गर्भित सावद्य वचन बोलना साधु के लिए तीर्थंकर आदि भगवंतों से निषिद्ध है। इस तरह क्रिकेट मेच आदि में 'पाकिस्तान का पराजय हो' इत्यादि आशंसावचन भी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि तब यहाँ भी भारतीयों और मुसलमानों के बीच झघडा-बखेडा आदि मुमकिन है - ऐसा उपलक्षण से समझा जाता है। * बिना अतिशय के भाविकथन नहीं करना चाहिए * तथा वात. इति । इस तरह बहुत गर्मी होने पर 'पवन आये तो ठीक रहेगा' ऐसा बोलना; तथा 'वृष्टि हो, ठंड पडो, गर्मी हो', ऐसा बोलना अनुज्ञात नहीं है। शत्रुसेना तथा इस प्रकार का कोई उपद्रव नहीं होता, उस स्थिति का नाम क्षेम है। 'क्षेम हो, सुभिक्ष हो' इत्यादि बोलना मुनि के लिए निषिद्ध है। इस तरह 'पवन, वृष्टि, ठंड, गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष आदि मत हो' ऐसा बोलना भी साधु के लिए अनुज्ञात नहीं है। अपनी या दूसरों की शारीरिक सुख-सुविधा के लिए अनुकूल स्थिति के होने की और प्रतिकूल स्थिति न होने की आशंसा से युक्त ऐसे वचन मुनि के लिए अवक्तव्य है। मुनि के, जिसको वचनसिद्धि आदि कोई अतिशयं प्राप्त नहीं है, वचनमात्र से न तो पवन की लहर आती है या न तो बारीस आती है। तब मुनि का वचन विसंवादी बनने से असत्य हो जायेगा। मानो कि काकतालीयन्याय से ऐसा हो गया तब भी इष्ट की प्राप्ति या अनिष्ट का वियोगरूप आर्तध्यान होता है। तथा अधिकरणदोष भी लगता है क्योंकि सावद्य प्रवृत्ति की अनुमोदना तो तब आ ही जाती है। इसके अतिरिक्त पवन आदि के आने पर
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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