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________________ * नयभाषाया वक्तव्यत्वसाधनम् * ३२५ तथा अयतानां = असंयतानां आज्ञप्तिं 'आस्व एहि कुरू वा इदं कार्यं शेष्व तिष्ठ प्रज' इत्यादिरूपां, न भाषेत = न वदेत्, अयतनाप्रवर्त्तनप्रयुक्तदोषप्रसङ्गात् । तथाकथनस्वीकृत्यादिना भावचारित्रविघटनात्तन्निषेधो यद्वा तस्य भावचारित्रप्रतिपन्थित्वादेतत्सत्त्वदशायामनुविचिंत्य भाषिणो मुनेः तादृशप्रयोगस्याऽसम्भवादिति । तदुक्तं आचाराङ्गे 'से भिक्खु वा भिक्खुणी वा वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुवीयि णिट्ठाभासी निसम्मभासी अतुरियभासी विवेगभासी समियाए संजते भासं भासेज्जा ।। (आचा. २/४/२-सू. १४०) अत एव साधूनामवधारिणी भाषा वक्तुं नाऽनुज्ञाता । तदुक्तं दशवैकालिके 'ओहारिणी जा य' ( दश. वै. ७ / ५४ ) इति । नन्वेवं सति 'स्याद् नित्य एव जीव' इत्यादिरूपा भाषाऽपि निषिद्धा स्यादिति चेत् ? मैवम्, या अवधारणी भाषा एकान्तवादात्मिका सैव निषिद्धा न तु नयरूपाऽपि तस्याः प्रमाणपरिकरत्वेन तत्राऽवधारणीयत्वस्य निश्चायकत्वरूपभाषालक्षणान्वयेनैव सिद्धान्तसिद्धत्वात् । न च भाषामात्रस्याऽवधारणीत्वेऽप्याऽऽराधकत्व - विराधकत्वतदुभयानुभयैः सत्यादिभेदचतुष्कोपदेशान्नयभाषाया देशाराधकत्वेन तृतीयभङ्गे एव प्रवेशात् साधूनामनादरणीयत्वमित्यपि साम्प्रतम् चतुर्धा विभागस्य द्रव्यभावभाषायामेवोपदेशात् परिगणितमिश्रभाषाभेददशकानन्तर्भावादेव नयभाषायां दोषाऽभावात्। श्रुतभावभाषायाञ्च तृतीयमिश्रभाषाया अनधिकृतत्वात् । चारित्रभावभाषायामाद्यन्तयोर्भाषयोरधिकृतत्वेऽप्यायुक्ततया चतसृणामपि भाषणे आराधकत्वाऽविरोधस्य प्रज्ञापनादौ यथोक्तं तथा प्राक् प्रदर्शितमेव । किञ्च 'स्यान् नित्य एव जीव' इत्यत्र प्रतीत्यसत्यालक्षणं स्फुटमेव किं नोन्नीयते ? न च सप्तभङ्गात्मकवाक्यस्यैव प्रतीत्यसत्यात्वमिति वाच्यम् अपेक्षात्मकबोधजनकवाक्यत्वस्यैव तल्लक्षणत्वादिति प्रागुक्तं स्मरतु भवान् । अन्यथा एकत्राऽपेक्षया ह्रस्वदीर्घादिलौकिकवचनस्याऽलक्ष्यत्वापत्तेः । न च सर्वत्राऽलौकिक्येव सत्या लक्ष्येति स्वीकर्तव्यम् जनपदसत्यादिभेदाऽनुपसङ्ग्रहापत्तेः । ननु तथापि उत्सर्गतोऽनादरणीयत्वादेव नयदुनर्यभाषयोरविशेषः । तथोक्तं श्रीसिद्धसेनदिवाकराचार्येण 'सीसमइविप्फारणमेत्तत्थोऽयं कओ समुल्लावो । इहरा कहामुहं चेव णत्थि एयं ससमयंमि ।। (सं.त.कां. ३ /गा. २५) इति चेत् ? न, शिष्यमतिविस्फारकत्वं हि नयवाक्यस्य प्रमाणात्मकमहावाक्यजन्यशाब्दबोधजनकावान्तरवाक्यार्थज्ञानजनकत्वं, असंभवित है, कथन करते ही नहीं हैं । चारित्र की विद्यमानता में जिस भाषा का प्रयोग नहीं हो सकता है उसका निषेध कोटि में निर्देश' करना भी तो उचित ही है। इसीलिए भी अभ्युच्चय भाषा बोलना साधु के लिए निषिद्ध है। * गृहस्थ से आज्ञा करना साधु के लिए निषिद्ध तथा अयतानां. इति। गाथा के द्वितीय पाद का विवरण करते हुए महोपाध्यायजी महाराज कहते हैं कि असंयत ऐसे गृहस्थ प्रति ज्ञापन भाषा बोलना साधु के लिए निषिद्ध है । जैसे, गृहस्थ से 'बेठिए, आइए, यह काम करो, अब सो जाओ, खडे रहो, यहाँ से चले जाओ' इत्यादि कहना आज्ञापनी भाषा है । इस भाषा को गृहस्थ के प्रति बोलने का साधु के लिए निषिद्ध होने का कारण यह है कि गृहस्थ से आज्ञा करने से अयतनाप्रवर्तनप्रयुक्त दोष होते हैं। शास्त्र में गृहस्थ को तपे हुए लोहे के गोले के समान बताया गया है। जैसे तप्त अयोगोलक जहाँ जाता है वहाँ विराधना और जीवों को पीडा करता है वैसे गृहस्थ भी अपनी प्रवृत्ति से जीवों की विराधना करता है। उसे आज्ञा देने से उस विराधना की भी अनुमोदना हो जाती है। अधिकरण दोष भी होता है, चूँकि साधु के वचन से गृहस्थ प्रवृत्त हुआ है । अनिष्ट आज्ञा करने पर गृहस्थ को साधु के प्रति अप्रीति-द्वेष आदि भी हो सकता है। इस तरह अनेक दोष के सबब गृहस्थ से आज्ञा करना साधु के लिए निषिद्ध है । * असाधु को साधु कहना मृषावाद हैं तथा साधु. इति। अब विवरणकार गाथा के तृतीय पाद का विवरण करते हैं कि आजीवक आदि को, जो हिंसा में प्रवृत्त होने
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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