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________________ ३२२ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. ५. गा. ९४ तथा प्रयत्नसुन्दरा कन्या' इति दीक्षिता सती सम्यक् पालनीयेत्यर्थः । तथा सर्वमेव वा कृतादि कर्मनिमित्तमालपेत् गाढप्रहारं च क्वचित्प्रयोजने गाढप्रहारं ब्रूयात् एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिह्नता भवन्तीति । ● 'प्रयत्नसुन्दरा कन्येति वचनविचारा व्यवहारं पृष्टश्च साधुरेवं भाषेत यदुत "नाहं भाण्डमूल्यविशेषं जानामि न चात्र क्रयविक्रयार्हं वस्तु ददामि कस्यचित्, किं वा नानुमत्यादयो दोषा न वा प्रयोजनासिद्धिः । प्रयत्नसुंदरा कन्येति । अत्र न शारीरं सौंदय प्राधान्येनाऽभिधीयते किन्तु प्रयत्नेन दीक्षानिर्वहण योग्यत्वमिति न सावद्यत्वं वचने अन्यत्र तु प्रकृते 'सुलष्टोऽयं दारको व्रतग्रहणस्य' (उत्त. ने. वृ. १/३६) इत्युक्तम्। , कर्मनिमित्तमिति । न पापकर्मनिमित्तमित्यर्थः कार्यः अप्रीत्यादिदोषतादवस्थ्यात् किन्तु शिक्षानिमित्तमित्यर्थः । तदुक्तं चूर्णी 'कम्महेउयं नाम सिक्खापुव्वगंति वृत्तं भवति' (द. वै. जि. यू. पू. २५९) गाढप्रहारं ब्रूयात् न तु सुष्ठु ताडित इति शेषः । तदुक्तं पयत्तपक्कत्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिनत्ति व छिन्नमालवे पयत्तलट्ठित्ति व कम्महेउअं, पहारगाढत्ति व गाढमालवे ।।' (द. वै. ७ / ४२ ) । । ९४ ।। होती है और अपने अभिप्रेत प्रयोजन की सिद्धि भी हो जाती है। तथा जब कोई लडकी दीक्षा के योग्य है ऐसा अन्यसे बताना हो तब यह लडकी बहुत सुंदर हैं- ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि तादृश साधुवचन को सुन कर लोग तरह-तरह की मनमानी कल्पना करते हैं उस स्थल में 'यह प्रयत्नसुंदर है' अर्थात् दीक्षा के बाद इसकी अच्छी तरह हिफाज़त और परवरीश करनी चाहिए ऐसा कथन करना चाहिए। इस वाक्य को सुन कर लडकी के पिता आदि गृहस्थ को गेरसमज नहीं होती है बल्कि यह महसूस होता है कि दीक्षा के बाद सावधानता और जागरूकता से यह अच्छी साध्वी बनेगी। इस तरह सोच कर लडकी के पिता आदि उसे दीक्षा की अनुमति देने को तैयार होते हैं। देखिए, बोलने में कितनी सावधानी रखनी पड़ती है वरना अर्थ का बड़ा अनर्थ हो जाए। तथा सर्वमेव कृता इति तथा कोई पढाई या खेलकूद में प्रथम कक्षा में उत्तीर्ण हो, कोई बड़ी ईमारत का निर्माण हो, सर्कस का खेल हो, विज्ञान के अनेक नूतन आविष्करण हो, ट्रेजेडी से पूर्ण पीक्चर (चलचित्र) की रचना हो, पेलेस (राजमहल) हो, स्टंट से भरा नाटक तैयार हो, क्रिकेट आदि खेल में कोई ज्यादा रन बनाता हो या सुपर बोलींग कर के हेट्रिक लेता हो, गोल्डनबीच या शिल्पस्थापत्य का सर्जन हो, म्युझियम हो, नेशनल पार्क या वृन्दावन गार्डन हो, प्राणीसंग्रहालय हो, ताजमहल या फाइवस्टार होटल हो, रिलेक्षेबल मारुति गाडी या लक्झरी बस का उत्पादन हो, या मेझिक हो, इनके संबन्ध में साधु से कोई प्रश्न करे कि - 'बापजी ! यह आपको कैसा लगता है?' तब साधु के लिए यह कहना उचित हैं कि- 'यह सब शिक्षा का फल है, अभ्यास का परिणाम है, कला का नतीजा है। ऐसा बोलने से उन सावद्य कार्यों की अनुमोदना नहीं होती है। उन स्थलों में गृहस्थ प्रश्न करे तब मौन रहने से संभव है कि लोग को यह प्रतीत हो कि "महात्मा कुछ जानते नहीं हैं कि आज कल दुनिया में क्या हो रहा है ?" इस तरह साधु की लघुता होना संभवित है। इससे बचने का अनूठा मार्ग तीर्थंकर भगवंत आदि ने साधु से बताया है जिसको हमने अभी बता दिया है। गाढप्र. इति । तथा कोई बहुत बूरी तरह घायल हुआ हो तब उसे देख कर 'यह बहुत अच्छी तरह पीटा गया' ऐसा बोलना साधु के लिए निषिद्ध है, क्योंकि तादृश वचन सुन कर उस पीडित मनुष्य को साधु के प्रति अप्रीति या द्वेष होने के सबब अन्ततो गत्वा जिनशासन के प्रति अरुचि असद्भाव हो जाता है। उस स्थल में कुछ प्रयोजन के सबब उस आदमी को बताना जरूरी हो, तब करुणा से ऐसा कहना चाहिए कि इसे गाढ मार पड़ा हैं। इस तरह बोलने पर उसे साधु के प्रति अप्रीति तो नहीं होती है बल्कि यह प्रतीत होता हैं कि 'साधु मेरी ओर हमदर्दी बताते हैं सत्य होने के बावजूद भी पीडाकर वचन साधु के लिए परिहार्य है यह यहाँ तात्पर्य है । शंका- हमने पूर्व में जो प्रश्न किया था कि क्रय-विक्रय आदि के प्रसंग में गृहस्थ से जब साधु पूछा जाए तब साधु के लिए क्या बोलना उचित और अनुज्ञात है?' इसको तो आप भूल ही गये हैं- ऐसा लगता है। आज कल साधु से गृहस्थ ऐसे अनेक प्रश्न कर रहे हैं।
SR No.022196
Book TitleBhasha Rahasya
Original Sutra AuthorYashovijay Maharaj
Author
PublisherDivyadarshan Trust
Publication Year2003
Total Pages400
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size17 MB
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